के ऊपर। पुराना सौहार्द द्वेष का रूप ग्रहण करता जाता था। यदि इस समय अकस्मात् ज्वालासिंह के पदच्युत होने का समाचार मिल जाता तो शायद ज्ञानशंकर के हृदय को शांति होती। वह इस क्षुद्र भाव को मन में न आने देना चाहते थे। अपने को समझाते थे कि यह अपना-अपना भाग्य है। अपना मित्र कोई ऊंचा पद पाये तो हमे प्रसन्न होना चाहिए, किंतु उनकी विकलता इन सद् विचारों से न मिटती थी और बहुत यत्ल करने पर भी परस्पर सम्भाषण में उनकी लघुता प्रकट हो जाती थी। ज्वालासिंह को विदित हो रहा था कि मेरी यह तरक्की इन्हें जला रही है, किंतु यह सर्वथा ज्ञानशंकर की ईर्षा-वृत्ति का ही दोष न था। ज्वालासिंह के बात-व्यवहार में वह पहले की सी स्नेहमय सरलता न थी, वरन् उसकी जगह एक अज्ञात सहृदयता, एक कृत्रिम वात्सल्य, एक गौरव-युक्त साधुता पायी जाती थी, जो ज्ञानशंकर के घाव पर नमक का काम कर रही थी। इसमें संदेह नहीं कि ज्वालासिंह का यह दु-स्वभाव इच्छित न था, वह इतनी नीच प्रकृति के पुरुष न थे, पर अपनी सफलता ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था। इधर ज्ञानशंकर इतने उदार न थे कि इससे मानव चरित्र के अध्ययन का आनंद उठाते।
कहार के जाने के क्षण भर पीछे ज्वालासिंह उतर पड़े और बोले, यार, बताओ क्या समय है? जरा साहब से मिलने जाना है। ज्ञानशंकर ने कहा, अजी, मिल लेना ऐसी क्या जल्दी है?
ज्वालासिंह-नही भाई, एक बार मिलना जरूरी है, जरा मालूम तो हो जाय किस ढंग का आदमी है, खुश कैसे होता है?
ज्ञान-वह इस बात से खुश होता है कि आप दिन में तीन बार उसके द्वार पर नाक रगड़ें।
ज्वालासिंह ने हंस कर कहा, तो कुछ मुश्किल नहीं, मैं पांच बार सिजदे किया करूंगा।
ज्ञान-और वह इस बात से खुश होता है कि आप कायदे-कानून को तिलाजंलि दीजिए, केवल उसकी इच्छा को कानून समझिए।
ज्वालासिंह-ऐसा ही करूंगा।
ज्ञान-इनकम टैक्स बढ़ाना पड़ेगा। किसी अभियुक्त को भूल कर भी छोड़ा तो बहुत बुरी तरह खबर लेगा।
ज्वाला-भाई, तुम बना रहे हो, ऐसा क्या होगा!
ज्ञान-नहीं, विश्वास मानिए, वह ऐसा ही विचित्र जीव है।
ज्वाला-तब तो उसके साथ मेरा निबाह कठिन है।
ज्ञान-जरा भी नहीं। आज आप ऐसी बातें कर रहे हैं, कल को उसके इशारों पर नाचेंगे। इस घमंड में न रहिए कि आपको अधिकार प्राप्त हुआ है, वास्तव में आपने गुलामी लिखायी है। यहां आपको आत्मा की स्वाधीनता से हाथ धोना पड़ेगा, न्याय और सत्य का गला घोटना पड़ेगा, यही आपकी उन्नति और सम्मान के साधन हैं। मैं