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प्रेमाश्रम

नष्ट हो गयी । धार्मिक विश्वास की दीवार हिल गयी और उसकी ईंटे बिखर गयी।

कितना हृदय-विदारक दृश्य था। प्रेमशंकर का हृदय गद्गद् हो गया। भगवान् ! इस असभ्य, अशिक्षित और दरिद्र मनुष्य का इतना आत्माभिमान। इसे अपमान ने इतना मर्माहत कर दिया। कौन कहता है, गॅवारो में यह भावना निर्जीव हो जाती है? कितना दारुण आघात है जिसने भक्ति, विश्वास तथा आत्मगौरव को नष्ट कर डाला!

प्रेमशकर सब आदमियों के पीछे खडे थे। किसी ने उन्हें नहीं देखा। वह वही से चौपाल चले गये। वहाँ पलँग बिछा तैयार था। डपटसिंह चौका लगाते थे, कल्लू पानी भरते थे। उन्हें देखते ही गौस खाँ झुक कर आदाब अर्ज बजा लाये और कुछ सकुचाते हुए बोले, हुजूर को तहसीलदार साहब के यहाँ बड़ी देर हो गयी।

प्रेमशंकर--हाँ, इधर-उधर की बातें करने लगे। क्यो, यहाँ कहार नहीं है क्या? य लोग क्यों पानी भर रहे हैं। उसे बुलाइए, मुनासिब मजदूरी दी जायगी।

गौस खाँ--हुजूर, कहार तो चार घर थे, लेकिन सब उजड़ गये। अब एक आदमी भी नही है।

प्रेमशंकर--यह क्यो ?

गौस खाँ--अब हुजूर से क्या बतलाऊँ, हमी लोगो की शरारत और जुल्म से । यहाँ हमेशा तीन-चार चपरासी रहते है। एक-एक के लिए एक-एक खिदमतगार चाहिए । ओर मेरे लिए तो जितने खिदमतगार हो उतने थोड़े हैं। बेचारे सुबह से ही पकड़ लिए जाते थे, शाम को छुट्टी मिलती थी। कुछ खाने को पा गये तो पा गये, नहीं तो भूखे ही लौट जाते थे। आखिर सब के सब भाग खड़े हुए, कोई कलकत्ता गया, कोई रगून। अपने बाल बच्चों को भी लेते गये। अब यह हाल है कि अपने ही हाथो बर्तन तक धोने पड़ते है।

प्रेमशंकर--आप लोग इन गरीबो को इतना सताते क्यों हैं? अभी तहसीलदार साहब लश्करवालों की सारी बेइन्साफियो का इलज़ाम आपके ही सिर मढ रहे थे।

गौस खाँ--हुजूर तो फरिस्ते हैं, लेकिन हमारे छोटे सरकार को ऐसा ही हुक्म है। आजकल खेतो में बार-बार ताकीद करते हैं कि गाँव में एक भी दखलकार असामी न रहने पाये। हुजूर का नमक खाता हूँ तो हुजूर के हुक्म की तामील करना मेरा फर्ज है, वरना खुदाताला को क्या मुँह दिखलाऊँगा। इसीलिए मुझे इन बेकसो पर सभी तरह की सख्तियाँ करनी पड़ती है। कही मुकदमे खड़े कर दिये, कही बेगार में फँसा दिया, कहीं आपस में लड़ा दिया। कानून का हुक्म है कि आदमियों को लगान देते ही पाई-पाई की रसीद दी जाय, लेकिन मैं सिर्फ उन्ही लोगो को रसीद देता हूँ जो जरा चालाक हैं, गॅवारो को यों ही टाल देता हूँ। छोटे सरकार का बकाया पर इतना जोर है कि एक पाई भी बाकी रहे तो नालिश कर दो। कितने ही असामी तो नालिश से तंग आ कर निकल भागे। मेरे लिए तो जैसे छोटे सरकार हैं वैसे हुजूर भी हैं। आपसे क्या छिपाऊँ ? इस तरह की धाँधालियो में हम लोगों को भी गुजर-बसर हो जाता है, नहीं तो इस थोड़ी सी आमदनी में गुजर होना मुश्किल था।