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प्रेमाश्रम


इतने में बिसेसर, मनोहर, कादिर खाँ आदि भी आ गये और आज का वृत्तान्त कहने लगे। मनोहर दूघ लाये, कल्लू ने दही पहुँचाया। सभी प्रेमशंकर के सेवा सत्कार में तत्पर थे। जब वह भोजन करके लेटे तो लोगों ने आपस में सलाह की कि बाबू साहब को रामायण सुनायी जाय। बिसेसर साह अपने घर से ढोल-मजीरा लाये। कादिर ने ढोल लिया। मजीरे बजने लगे और रामायण का गान होने लगा। प्रेमशंकर को हिन्दी भाषा का अभ्यास न था और शायद ही कोई चौपाई उनकी समझ में आती थी, पर वह इन देहातियों के विशुद्ध धर्मानुराग का आनन्द उठा रहे थे। कितने निष्कपट, सरल-हृदय, साधु लोग हैं। इतने कष्ट झेलते हैं, इतना अपमान सहते हैं, लेकिन मनोमालिन्य का कहीं नाम नहीं। इस समय, सभी आमोद के नशे में चूर हो रहे हैं।

रामायण समाप्त हुई तो कल्लू बोला, कादिर चाचा, अब तुम्हारी कुछ हो जाय।

कादिर ने बजाते हुए कहा, गा तो रहे हो, क्या इतनी जल्दी थक गये।

मनोहर—नहीं भैया, अब अपनी कोई अच्छी-सी चीज सुना दो। बहुत दिन हुए नहीं सुना, फिर न जाने कब बैठक हो । सरकार, ऐसा गायक इधर कई गाँव में नहीं है।

कादिर—मेरे गँवारू गाने में सरकार को क्या मजा आयेगा?

प्रेमांकर—नहीं-नहीं, मैं तुम्हारा गाना बड़े शौक से सुनूँगा।

कादिर—हुजूर, गाते क्या हैं रो लेते हैं। आपका हुक्म कैसे टालें?

यह कह कर कादिर खाँ ने ढोल का स्वर मिलाया और यह भजन गाने लगा—

मैं अपने राम को रिझाऊँ।
जंगल जाऊँ न बिरछा छेड़ू, ना कोई डार सताऊँ।
पात-पात में है अविनासी, वाही में दरस कराऊँ।
मैं अपने राम को रिझाऊँ।
ओखद खाऊँ न बूटी लाऊँ, ना कोई बैद बुलाऊँ।
पूरन बैद मिले अविनासी, ताहि को नब्ज दिखाऊँ।
मैं अपने राम को रिझाऊँ।

कादिर के गले में यद्यपि लोच और माधुर्य न था, पर ताल और स्वर ठीक था। कादिर इस विद्या में चतुर था। प्रेमशंकर भजन सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। इसका एक-एक शब्द भक्ति और उद्गार में डूबा हुआ था। व्यवसायी गायकों की नीरसता और शुष्कता की जगह अनुरागमय, भाव-रस परिपूर्ण था।

गाना समाप्त हुआ तो एक नकल की ठहरी। कल्लू इस कला में निपुण था। कादिर मियाँ राजा बने, कल्लू मंत्री, बिसेसर साह सेठ बन गये। डपटसिह ने एक चादर ओढ़ ली और रानी बन बैठे। राजकुमार की कमी थी। लोग सोचने लगे कि यह भाग किसे दिया जायं। प्रेमशंकर ने हँस कर कहा कोई हरज न हो तो मुझे राजकुमार बना दो। यह सुन कर सब के सब फूल उठे। नकल शुरू हो गयी।