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प्रेमाश्रम

देश में अन्धकार-सा छा गया है। प्रजा उनको कभी न भूलेगी। आपसे तो उनकी बड़ी मैत्री थी, आपको तो और भी दुःख हो रहा होगा?

सेठ–मुझे उनके राज्य से कौन-सा सुख था कि अव दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उनकी बदौलत लाखों रुपये साधु संतों को खिलाने पड़ते थे।

राजा-(मन में) हाय! इस सेठ पर मुझे कितना भरोसा था! यह मेरे इशारे पर लाखों रुपये दान कर दिया करता था। सच का है, बनिए किसी के मित्र नहीं होते। मैं जन्म भर इसके साथ रहा, पर इसे पहचान न सका। अब चलें मंत्री के पास, वह बड़ा स्वामि-भक्त सज्जन पुरुष हैं। उसके साथ मैंने बड़े-बड़े सलूक किये हैं। यह उसका भवन आ गया। शायद अभी दरबार से आ रहा है। मन्त्री जी, कहिए क्या राज दरबार से आ रहे हैं? इस समय तो दरबार में शोक मनाया जा रहा होगा। ऐसे धर्मात्मा राजा की मृत्यु पर जितना शोक किया जाय वह थोड़ा है। अब फिर ऐसा राजा न होगा। आपको तो बहुत ही दुःख हो रहा होगा?

मन्त्री-मुझे उनसे कौन सा सुख मिलता था कि अब दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उनके मारे साँस लेने की भी छुट्टी न मिलती थी! प्रजा के पीछे आप मरते थे, मुझे भी मारते थे। रात-दिन कसर कसे खड़े रहना पड़ता था।

राजा---(आप ही आप) हाय! इस परम हितैषी सेवक ने भी धोखा दिया। मेरी आँख बन्द होते ही सारा संसार मेरा बैरी हो गया। ऐसे-ऐसे आदमी धोखा दे रहे। हैं जो मेरे पसीने की जगह लोहू बहाने को तैयार रहते थे। तीन आदमी भी ऐसे नहीं, जिन्हें मेरा जीना पसन्द हो। जब दोनों निकल गये तो दूसरों से क्या आशा रखूँ? अब रानी के पास जाता हूँ। वह साध्वी सती स्त्री है। उसकी जितनी ही सखियाँ हैं। सभी मुझ पर प्राण देती थीं। वहाँ मेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी। अब केवल थोड़ासा समय और रह गया है। यह राजभवन आ गया। रानी अकेली मन मारे शोक में बैठी हुई है। महारानी जी, अब धीरज से काम लीजिए, आपके स्वामी ऐसे प्रताप थे कि संसार में सदा उनका लोग यश गाया करेंगे। देह त्याग करके वह अमर हो गये।

रानी–अमर नहीं, पत्थर हो गये। उनसे संसार को चाहे जो सुख मिला हो, मुझे तो कोई सुख न मिला! उनके साथ बैठते लज्जा आती थी। मैं उनका क्या यश गाऊँ? मैं तो उसी दिन विधवा हो गयी जिस दिन उनसे विवाह हुआ। वह जीते थे तब भी राँड़ थी, मर गये तब भी राँड़ हूँ। देखो तो कुँवर साहब कैसे सजीले, बाँके जवान हैं। मेरे योग्य यह थे, न कि वैसा खूसट बुड्ढा, जिसके मुँह में दाँत तक नहीं थे।

यह सुनते ही राजा एक लम्बी साँस लेता है और मूर्छित हो कर गिर पड़ता है।

(अभिनय समाप्त होता है)

प्रेमशंकर को इन गँवारों के अभिनय-कौशल पर विस्मय हुआ? बनावट का कहीं नाम न था। प्रत्येक व्यक्ति ने अपना-अपना भाग स्वाभाविक रीति से पूरा किया। यद्यपि न परदे थे न कोई दूसरा सामान, तथापि अभिनय रोचक और मनोरंजक था।