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प्रेमाश्रम


छाती हुई उन पुरुषों से अपनी अपमान कथा कहने चली जो उसके मान मर्यादा के रक्षक थे।

मनोहर और बलराज दोनों एक दूसरे गाँव में धान काटने गये हुए थे। वह यहाँ से कोस भर पड़ता था। लखनपुर में धान के खेत न थे। इसलिए सभी लोग प्रायः उसी गाँव में धान बौते थे। बिलासी घान के मैडौ पर चली जाती थी। कभी पैर इधर फिसलते, कभी उधर वह ऐसी उदिन हो रही थी कि किसी प्रकार चड़ कर वहाँ पहुँच जाऊँ। पर चुटनियों में चौट आ गयी थी इसलिए विवश थी। उसके रोम-रोम से अग्नि की ज्याला निकल रही थीं। अग-अंग से यही ध्वनि निकलती थी--इनकी इतनी मजाल!

उसे इस समय परिणाम और फल की लैश-मात्र भी चिन्ता न थी। कौन भरेगा। किसका घर मिट्टी में मिलेगा। यह बातें उसकै ध्यान में भी न आती थी। यह संकल्प विकल्प के बन्धन से मुक्त हो गयी थी।

लेकिन जब उस गाँव के समीप पहुंची और घान से लहराते हुए खेत दिखायी वैसे लगे तो पहली बार उसके मन में यह प्रश्न उठा कि इसका फल क्या होगा? बलराज एक ही क्रोधी है, भनौहर उससे भी एक अंगुल आगे। मैरा रोना सुनते ही दोनो भभक उठेंगे। जान पर खेल जायेंगे, तब! किन्तु आहत हुवय ने उत्तर दिया, क्या हानि है? लड़कों के लिए आदमी क्यौ शौकता है। पति के लिए क्यो रौती है। इसी दिन के लिए हो। इस कलमुँह फैजू का मान मरदन तो हो जायेगा! गौस का घमंड तौ चूर-चूर हो जायेगा।

सब भी, जब वह अपने खेतो के डाँड़े पर पहुँची, मनोहर और दलराज नजर आने लगै सव उसके पैर आप ही रुकने लगे। यहाँ तक कि जब वह उनके पास पहुँची तव परिणाम चिन्ता ने उसे परास्त कर दिया। वह फूट-फूट कर रोने लगी। जानती थी और समझती थी कि यह आंसू की बूंदै आग की चिनगारियाँ हैं, पर आवेश पर अपना काबू न था। वह खेत के किनारे खड़ी हो गयी और मुंह ढक कर रोने लगी।

अलराज ने सशक हो कर पूछा, अम्मा क्या है? रोती क्यों है? क्या हुआ? यह सारा कपड़ा कैसे लहूलुहान हो गया?'

विलासी ने साड़ी की ओर देखा तो वास्तव मै रक्त के छीटे दिखायी दियें। घुटनियों से खून बह रहा था। उसका हृदय थर-थर काँपने लगा। इन छीटो को छिपाने के लिए वह इस समय अपने प्राण तक दे सकती थी। हाय। मेरे सिर पर कौन सा भूत सवार हो गया कि यहाँ दौड़ी हुई आयी। मैं क्या जानती थी कि कहीं फूट-फाट भी गया है। अब गजब हो गया। मुझे चाहिए था कि धीरज धरे बैठी रहत। साँझ को जब यह लोग घर जाते और गाँव के सब आदमी जमा होते तो सारा वृत्तान्त कह देती। सव की सलाह होती, वैसा किया जाता। इस अव्यवस्थित दशा में वह कोई शान्तिप्रद उत्तर न सोच सकी।

बलराज ने फिर पूछा, कुछ मुँह से बोलती क्यो नहीं? बस रोयें जाती है। क्या हुआ, कुछ बता भी तो।