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प्रेमाश्रम

फूल लगने शुरू हो गये थे। शाक-भाजी की पैदावार घाते में थी। प्रेमशंकर में व्यवसायिक संकीर्णता छु तक गयी थी। जो सज्जन यहाँ आ जाते उन्हें फूल-फलों की डाली अवश्य भेंट की जाती थी। प्रेमशंकर की देखा-देखी हाजीपुरवालों ने भी अपने जीवन का कुछ ऐसा डौल कर लिया था कि उनकी सारी आवश्यकताएँ उस बगीचे से पूरी हो जाती थी। भूमि का आठवाँ भाग कपास के लिए अलग कर दिया गया था। अन्य प्रान्तों से उत्तम बीज मँगा कर बोये गये थे। गाँव के लोग स्वयं सूत कात लेते थे और गाँव का ही कोरी उसके कपड़े बुन देता था। नाम उसका मस्ता था। पहले वह जुआ खेला करता था और कई बार चोरी में पकड़ा गया था। लेकिन अब अपने श्रम से गाँव में भले आदमियों में गिना जाता था। प्रेमशंकर के उद्योग मैं आसपास के गाँव मैं भी कपास की खेती होने लगी थी और कितने ही कोरियौ और जुलाहो के उजड़े हुए घर आबाद हो गये थे। देहात के मुकदमेबाज जमींदार और किसान बहुधा इसी जगह ठहरा करते थे। यहां उन्हें ईंधन, शाक-भाजी, नमक-तेल के लिए पैसे न खर्च करने पड़ते थे। प्रेमशंकर उनसे खूब बातें करते और उन्हें अपने बगीचे की सैर कराते। साधू-सन्तों का तो मानों अखाड़ा ही था। दो-चार मूर्तियाँ नित्य ही पड़ी रहती थी। न जाने उस भूमि मे क्या बरकत थी कि इतनी आतिथ्य सेवा करने पर भी किसी पदार्थ की कमी न थी। हाजीपुरवाले तो उन्हें देवता समझते थे और अपने भाग्य को सराहते थे कि ऐसे पुण्यात्मा ने हमे उबारने के लिए यहाँ निवास किया। उनके सदय, उदार, सरल स्वभाव ने मस्ती कोरी के अतिरिक्त गाँव के कई कुचरित्र मनुष्यों की उद्धार कर दिया था। भोला अहीर जिसके मारे खलिहान मैं अनाज न बचता था, दमड़ी पासी जिसका पेशा ही लठेती था, अब गाँव के सबसे मेहनती और ईमानबार किसान थे।

प्रेमशंकर अक्सर कृषकों की आर्थिक दुरवस्था पर विचार किया करते थे। अन्य अर्थशास्त्रवेत्ताओं की भाँति वह कृषकों पर फजूलखर्ची, आलस्य, अशिक्षा या कृर्षिविधान से अनभिज्ञता का दोष लगा कर इस प्रश्न को हल न करते थे। वह परोक्ष मैं कहा करते थे कि मैं कृषको को शायद ही कोई ऐसी बात बता सकता हूँ जिसका उन्हें शान न हो। परिश्रमी तो इनसे अधिक कोई संसार में न होगा। मितव्ययिता मे, आत्मसंयम में, गृह-प्रबन्ध में निपुण हैं। उनकी दरिद्रता का उत्तरदायित्व उन पर नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों पर है जिनके अधीन उनका जीवन व्यतीत होता है, और यह परिस्थितियों क्या हैं? आपस की फूट, स्वार्थपरता और एक ऐसी संस्थाका विकास, जो उनके पाँव की बेड़ी बनी हुई हैं। लेकिन जरा और विचार कीजिए तो यह तीनो कहानियाँ एक ही शाखा से फूटी हुई प्रतीत होगी और यह वही संस्था है। जिसका अस्तित्व कृषको के रक्त पर अवलम्बित है। आपस में विरोध क्यों है? दुरबस्थाओं के कारण, जिनकी इस वर्तमान शासन ने सृष्टि की है। परस्पर प्रेम और विश्वास क्यों नहीं है? इसलिए कि यह शासन इन सद्भावों को अपने लिए घातक समझता है और उन्हें पनपने नहीं देता। इस परस्पर विरोध का सबसे दुःखजनक