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प्रेमाश्रम

फल क्या है? भूमि का क्रमश अत्यन्त अल्प भागों में विभाजित हो जाना और उसके लगान की अपरिमित वृद्धि। प्रेमशंकर इस शासन के सुधार को तो मानव शक्ति से परे समझते थे, लेकिन भूमि के बंटवारे को रोकना उन्हें साध्य जान पड़ता था और यद्यपि किसी आन्दोलन में अगुआ बनना उन्हें पसन्द न था, किन्तु इस विषय में वह इतने उत्सुक थे कि समाचार पत्रों में अपने मन्तव्यों को प्रकट करने से न रुक सके। इससे उनका उद्देश्य केवल यह था कि कोई मुझसे अधिक अनुभवशील, कुशल और प्रतिभाशाली व्यक्ति इस प्रश्न को अपने हाथ में ले ले।

एक दिन वह कई सहृदय मित्रों के साथ बैठे हुए इसी विषय पर बातचीत कर रहे थे कि एक सज्जन ने कहा, यदि आप का विचार है कि यह प्रथा कानून से बन्द की जा सकती है तो आपकी भ्रान्ति है। इस विष-युक्त पौधे की जड़े मनुष्य के हृदय मे है और जब तक इसे हृदय से खोद कर न निकालिएगा यह इसी प्रकार फूलता-फलता रहेगा।

प्रेमशंकर—कानून में कुछ न कुछ सुधार तो हो ही सकता है।

इस पर उन महाशयों ने जोर देकर कहा, कदापि नहीं। बल्कि स्वार्थ प्रत्यक्ष रूप से स्फुटित होने का अवसर न पा कर और भी भयंकर रूप धारण कर लेगा।

इस पर एक किसान जो बंटवारे की दरख्वास्त करके कचहरी से लौटा था और आज यही ठहरा हुआ था, बाेल उठा, कहूँ कुछ न होई। हम तो अपें लोगन के पीछे-पीछे चलित है। जब आपे लौगन मे भाई-भाई मे निबाह नाहीं होय सकते हैं। तो हमार कस होई! आपका नारायण सब कुछ दिये है, मुदा आपे अपने भाई से अलग रहत हौ।

ये उच्छृखल शब्द प्रेमशंकर के हृदय में तीर के समान चुभ गये। सिर झुका लिया। मुखश्री मलीन हो गयी। मित्रों ने कृषक की और तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखा। यह एक जगत्-व्यापार था। यहाँ व्यक्तियों को खींचना नितान्त न्याय-विरुद्ध था, पर वह अक्खड़ देहाती सभ्यता के रहस्यों को क्या जाने? मुँह में जो बात आयी कह डाली। एक महाशय ने कहा, निरे गंवार हो, जरा भी तमीज़ नहीं।

दूसरे महाशय बोले, अगर इतना ही ज्ञान होता तो देहाती क्यों कहलाते? न अवसर का ध्यान, न औचित्य को विचार, जो कुछ ऊटपटाँग मुंह में आया, बक डाला।

बेचारे किसान को अब मालूम हुआ कि मुँह से कोई अनुचित बात निकल गयी। लज्जित हो कर बोला, साहब, मैं गंवार मनई। ई सब फेरफार का जानौ। जीन कुछ भूल चूक हो गयी होय माफ कीन जाय।

प्रेमशंकर—नहीं-नहीं, तुमने कोई अनुचित बात नहीं कही। मेरे लिए इस स्पष्ट कथन की आवश्यकता थी। तुमने अच्छी शिक्षा दे दी। कोई सन्देह नहीं कि शिक्षित जनों मैं भी विरोध और वैमनस्य का उतना ही प्रकोप है जितना अशिक्षित लोगों में हैं और में इस विषय में दोषी हूँ। मुझे किसी को समझाने का अधिकार नहीं।