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प्रेमाश्रम

वालो की नीयत उन्हें पहले मालूम हो जाती तो यह नौबत ही न आती । तुम्हे थानेदार की खुशामद करने की कोई जरूरत नही । वह अपनी रक्षा आप कर सकते हैं।

विद्या--मैं तुम्हे बरावर समझाती आती थी कि देहातियो से राड़ ने बढाओ । विल्ली भी भागने को राह नहीं पाती तो शेर हो जाती है। लेकिन तुमने कभी कान ही न दिये।

ज्ञान--कैसी बेसिर-पैर की बाते करती हो ? मैं इन टुकड़गदे किसानो से दवता फिरूँ ? जमीदार न हुआ कोई चरकटा हुआ । उनकी मजाल थी कि मेरे मुकाबले में खड़े होते ? हाँ, जब अपने ही घर में आग लगानेवाले मौजूद हो तो जो कुछ न हो जाय वह थोड़ा है। मैं एक नहीं सौ बार कहूँगा कि अगर भाई साहब ने इन्हें सिर न चढाया होता तो आज इनके हौसले इतने न बढ़ते ।

विद्या--(दबी जुबान से) सारा शहर जिसकी पूजा करता है उसे तुम घर में आग लगानेवाला कहते हो ?

ज्ञान--यही लोक-सम्मान तो इन सारे उपद्रवो का कारण है।

श्रद्धा और ज्यादा न सुन सकी । उठ कर अपने कमरे में चली गयी। तब ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे तो इनके फँसने मे जरा भी सन्देह नहीं हैं।

विद्या--तुम अपनी ओर से उनके बचाने में कोई बात उठा न रखना, यह तुम्हारा धर्म है। आगे विधाता ने जो लिखा है वह तो होगा ही।

ज्ञान--भाभी की तबियत का कुछ और ही रग दिखाई देता है।

विद्या--तुम उनका स्वभाव जानते नही । वह चाहे दादा जी के साये से भी भागें, पर उनके नाम पर जान देती है, हृदय से उनकी पूजा करती हैं।

ज्ञान--इधर भी चलती हैं, उधर भी।

विद्या--इधर लोक-लाज से चलती हैं, हृदय उधर ही है।

ज्ञान--तो फिर मुझे कोई और ही उपाय सोचना पड़ेगा।

विद्या--ईश्वर के लिए ऐसी बातें मुझसे न किया करो।



२९

श्रद्धा की बातो से पहले तो ज्ञानशकर को शका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शका निवृत्त हो गयी, क्योकि इस मामले में प्रेमशकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था । ऐसी अवस्था में श्रद्धा के क्रोध से ज्ञानशकर की कोई हानि न हो सकती थी।

ज्ञानशकर ने निश्चय किया कि इस विषय में मुझे हाथ पैर हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। सारी व्यवस्था मेरे इच्छानुकूल है। थानेदार स्वार्थवश इस मामले को बढ़ायेंगा, सारे गाँव को फँसाने की चेष्टा करेगा और उसका सफल होना असन्दिग्ध है। गाँव में कितना ही एका हो, पर कोई न कोई मुखबिर निकल ही आयेगा। थानेदार ने लखनपुर के जमीदारी दफ्तर को जाँच-परताल अवश्य ही की होगी । वहाँ