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प्रेमाश्रम

कि तहकीकात होगी और पुलिस दरवाजे पर आयेगी। आज उन्ही का प्रिय पुत्र. . क्यो बेटा, जमानत न होगी ?

ज्ञानशकर इस कातर अधीरता पर रुष्ट हो कर बोले, मालूम नही, हाकिमो की मर्जी पर है।

प्रभा--तो जा कर हाकिमी से मिलते क्यों नहीं ? कुछ तुम्हें भी अपनी इज्जत की फिक्र है या नहीं ?

ज्ञान--कहना बहुत आसान है, करना कठिन है।

प्रभा--भैया, कैसी बातें करते हो ? यहाँ के हाकिमो में तुम्हारा कितना मान है ? बडे साहब तक तुम्हारी कितनी खातिर करते है ? यह लोग किस दिन काम आयेगे ? क्या इसके लिए कोई दूसरा अवसर आयेगा ?

ज्ञान--अगर आपका यह आशय है कि मैं जा कर हाकिमो की खुशामद करूँ, उनसे रियायत की याचना करूँ तो यह मुझसे नही हो सकता । मैं उनके खोदे हुए गढे में नही गिरना चाहता । मैं किस दावे पर उनकी जमानत कर सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि वह अपनी टेक नहीं छोड़ेंगे ओर मुझे भी अपने साथ ले डूबेगे ।

प्रभाशकर ने लम्बी साँस भर कर कहा, हा भगवान ! यह भाई भाइयो का हाल हैं। मुझे मालूम न था कि तुम्हारा हृदय इतना कठोर है। तुम्हारा सगा भाई आफत में पड़ा है और तुम्हारा कलेजा जरा भी नहीं पसीजता। खैर कोई चिंता नहीं। अगर मेरी सामर्थ्य से बाहर नहीं है तो मेरे भाई का प्यारा पुत्र मेरे सामने यो अपमानित न होने पायेगा ।

ज्ञानशकर को अपने चाचा की दयार्द्रता पर क्रोध आ रहा था। वह समझते थे कि केवल मेरी अवहेलना करने के लिए यह इतने प्रगल्भ हो रहे है। इनकी इच्छा है कि मुझे भी अधिकारियो की दृष्टि में गिरा दे। लेकिन प्रभाशकर बनावटी भावो के मनुष्य न थे । वह कुल-प्रतिष्ठा पर अपने प्राण तक समर्पण कर सकते थे । उनमे वह गौरव प्रेम था जो स्वय उपवास करके आतिथ्य-सत्कार को अपना सौभाग्य समझता था, और जो अब, हा शोक । इस देश से लुप्त हो गया है । धन उनके विचार में केवल मान-मर्यादा की रक्षा के लिए था, भोग-विलास और इन्द्रिय-सेवा के लिए नहीं । उन्होने तुरन्त जा कर कपड़े पहने, चोगा पहना, अमामा बाँधा और एक पुराने रईस के वेश मे मैजिस्ट्रेट के पास जा पहुँचे। रात के आठ बज चुके थे, इसकी जरा भी परवाह न की । साहब के सामने उन्होने जितनी दीनता प्रकट की, जितने विनीत शब्दो मे अपनी सकट-कथा सुनायी, जितनी नीच खुशामद की, जिस भक्ति से हाथ बाँध कर खडे हो गये, अमामा उतार कर साहब के पैरो पर रख दिया और रोने लगे, अपने कुल-मर्यादा की जो गाथा गायी और उसकी राज-भक्ति के जो प्रमाण दिये उसे एक नव शिक्षित युवक अत्यन्त लज्जाजनक ही नही बल्कि हास्यास्पद समझता । लेकिन साहब पसीज गये। जमानत ले लेने का वादा किया, पर रात हो जाने के कारण उस वक्त कोई कार्रवाई न हो सकी। प्रभाशकर यहाँ से निराश लौटे । उनकी यह इच्छा