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प्रेमाश्रम

कि प्रेमशकर हिरासत में रात को न रहे पूरी न हो सकी। रात भर चिंता में पड़े हुए करवटे बदलते रहे । भैया की आत्मा को कितनी कष्ट हो रहा होगा ? कई बार उन्हें ऐसा धोखा हुआ कि भैया द्वार पर खडे रो रहे है । हाय ! बेचारे प्रेमशकर पर क्या बीत रही होगी । तग, अँधेरी, दुर्गन्धयुक्त कोठरी में पड़ा होगा, आँखों में आँसू न थमते होगे । इस वक्त उससे कुछ न खाया गया होगा । वहाँ के सिपाही और चौकीदार उसे दिक कर रहे होगे । मालूम नहीं, पुलिसवाले उसके साथ कैसा बर्ताब कर रहे है ? न जाने उससे क्या कहलाना चाहते हो ? इस विभाग मे जा कर आदमी पशु हो जाता है। मेरा दयाशंकर पहले कैसा सुशील लडका था, जब से पुलिस में गया है। मिजाज ही और हो गया। अपनी स्त्री तक की बात नहीं पूछता। अगर मुझपर कोई मामला आ पडे तो मुझसे बिना रिश्वत लिये न रहे । प्रेमशकर पुलिसवालों की बातो मे न आता होगा और वह सब के सब उसे और भी कष्ट दे रहे होगे । भैया इस पर जान देते थे, कितना प्यार करते थे, और आज इसकी यह दशा ।

प्राप्त काल प्रभाशकर फिर मैजिस्ट्रेट के बँगले पर गये । मालूम हुआ कि साहब शिकार खेलने चले गये है। वहाँ से पुलिस के सुपरिन्टेडेंट के पास गये । यह महाशय अभी निद्रा में मग्न थे। उनसे दस बजे के पहले भेट होने की सम्भावना न थी। बेचारे यहाँ से भी निराश हुए और तीसरे पहर तक बे-दाना, बे-पानी, हैरान-परेशान, इधर-उधर दौडते रहे। कभी इस दफ्तर में जाते, कभी उस दफ्तर में । उन्हें आश्चर्य होता था कि दफ्तरो के छोटे कर्मचारी क्यों इतने बेमुरौवत और निर्दय होते हैं। सीधी बात करनी तो दूर रही, खोटी-खरी सुनाने में भी सोच नही करते । अन्त में चार बजे मैजिस्ट्रेट ने जमानत मंजूर की, लेकिन हजार दो हजार की नहीं, पूरे दस हजार की, और वह भी नकद । प्रभाशकर का दिल बैठ गया । एक बडी साँस ले कर वहाँ से उठे और धीरे-धीरे घर चले, मानो शरीर निर्जीव हो गया है। घर आ कर वह चारपाई पर गिर पडे और सोचने लगे, दस हजार का प्रबध कैसे करूँ ? इतने रुपये मुझे विश्वास पर कौन देगा ? तो क्या जायदाद रेहन रख दूँ ? हाँ, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। मगर घरवाले किसी तरह राजी न होगें, घर में लड़ाई ठन जायगी। बहुत देर तक इसी हैस-बैस में पडे रहे। भोजन का समय आ पहुँचा । बडी बहू बुलाने आयी। प्रभाशकर ने उनकी ओर विनीत भाव से देख कर कहा, मुझे बिलकुल भूख नही है ।

वही बहू--कैसी भूख है जो लगती ही नही ? कल रात नहीं खाया, दिन को नही खाया, क्या इस चिन्ता में प्राण दे दोगे ? जिन्हे चिन्ता होनी चाहिए, जो उनका हिस्सा उडाते है, उनके माथे पर तो बल तक नहीं है और तुम दाना-पानी छोडे बैठे हो । अपने साथ घर के प्राणियों को भी भूखो मार रहे हो । प्रभाशकर ने सजल नेत्र हो कर कहा, क्या करूँ, मेरी तो भूख-प्यास बन्द हो गयी है। कैसा सुशील, कितना कोमल प्रकृति, कितना शान्तचित्त लडका है। उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने फिर रही है। भोजन कैसे करूँ! विदेश मे था तो भूल गये थे, उसे खो बैठे थे, पर खोये रत्न को पाने के बाद उसे चोरो के हाथ में देख कर सब्र नहीं होता।

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