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प्रेमाश्रम

रात के १० बजे थे । ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशकर के दीवानखाने में ही लेटें, लेकिन प्रेमशकर को मच्छरो ने इतना तग किया कि नीद न आयी। कुछ देर सक तो वह पखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्याकुल हो बाहर आ कर सहन मे टहलने लगे । सहन की दूसरी ओर ज्ञानशकर का द्वार था। चारो ओर सन्नाटा छाया हुआ था नीरवता ने प्रेमशंकर की विचार-ध्वनि को गुञ्जित कर दिया। सोचने लगे, मेरा जीवन कितना विचित्र है ! श्रद्धा जैसी देवी को पा कर भी मैं दाम्पत्य-सुख से वचित हूँ। सामने श्रद्धा का शयनगृह हैं, पर मैं उधर ताकने का साहस नहीं कर सकता। वह इस समय कोई धर्म-ग्रन्थ पढ़ रही होगी, पर मुझे उसकी कोमल वाणी सुनने का अधिकार नही।

अकस्मात् उन्हें ज्ञानशंकर के द्वार से कोई स्त्री निकलती हुई दिखायी दी। उन्होंने समझा मजूरनी होगी, काम-धन्धे से छुट्टी पा अपने घर जानी होगी। लेकिन नही, यह सिर से पैर तक चादर ओढ़े हुए हैं। महरियाँ इतनी लज्जाशील नहीं होती। फिर यह कौन है ? चाल तो श्रद्धा की सी है, कद भी वही है। पर इतनी रात गये, इस अन्धकार में श्रद्धा कहाँ जायेगी ? नही, कोई और होगी। मुझे भ्रम हो रहा है। इस रहस्य को खोलना चाहिए । यद्यपि प्रेमशंकर को एक अपरिचित और अकेली स्त्री के पीछे-पीछे भेदिया बन कर चलना सर्वथा अनुचित जान पडता था, पर इस गाँठ को खोलने की इच्छा इतनी प्रबल थी कि वह उसे रोक न सके ।

कुछ दूर तक गली में चलने के बाद वह स्त्री सडक पर आ पहुँची और दशाश्वमेघ घाट की ओर चली । सडक पर लालटेने जल रही थी। रास्ता बन्द न था, पर बहुत कम लोग चलते दिखायी देते थे । प्रेमशकर को उस स्त्री की चाल से अब पूरा विश्वास हो गया कि वह श्रद्धा हैं। उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही । यह इतनी रात गये इस तरफ कहाँ जाती है ? उन्हें उस पर कोई सन्देह न हुआ। वे उसके पातिव्रत को अखड और अविचल समझते थे। पर इस विश्वास ने उनकी प्रश्नात्मक शका को और भी उत्तेजित कर दिया। उसके पीछे-पीछे चलते रहे, यहाँ तक कि गगातट की ऊँची-ऊँची भट्टालिंकाएँ आ पहुँची । गली में अँधेरा था, पर कही-कही खिड़कियो से प्रकाश ज्योति आ रही थी, मानो कोई सोता हुआ आदमी स्वप्न देख रहा हो । पगपग पर साँडो़ का सामना होता था। कहीं-कही कुत्ते भूमि पर पड़ी हुई पत्तलो को चाट रहे थे। श्रद्धा सीढ़ियो से उतर कर गंगातट पर जा पहुँची। अब प्रेमशकर को भय हुआ, कहीं इसने अपने मन में कुछ और तो नही ठानी है। उनका हृदय काँपने लगा। वह लपक कर सीढ़ियो से उतरे और श्रद्धा से केवल इतनी दूर खड़े हो गये कि तनिक खटका होते ही एक छलाँग में उसके पास जा पहुँचे। गगा निद्रा में मग्न थी। कहीं-कहीं जल-जन्तुओ के छपकने की आवाज आ जाती थी। सीढियों पर कितने ही भिक्षुक पडे सो रहे थे। प्रेमशकर को इस समय असह्य ग्लानि-वेदना हो