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प्रेमाश्रम

रही थी। यह मेरी क्रूरता--मेरी हृदय-शून्यता का फल है। मैंने अपने सिद्धान्त-प्रेम ओर आत्म-गौरव के घमड मे इसके विचारों की अवहेलना की, इसके मनोभावों को पैरो से कुचला, इसकी घर्मनिष्ठा को तुच्छ समझा। जब सारी बिरादरी मुझे दूध की मक्खी समझ रही हैं, जब मेरे विषय में नाना प्रकार के अपवाद फैले हुए हैं, जब मैं विधर्मी, नास्तिक और जातिच्युत समझा जा रहा हूँ, सब एक धार्मिक वृत्ति की महिला का मुझसे विमुख हो जाना सर्वथा स्वाभाविक था। न जाने कितनी हृदय-वेदना, कितने आत्मिक कष्ट और मानसिक उत्ताप के बाद आज इस अवला ने ऐसा भयकर संकल्प किया है।

श्रद्धा कई मिनट जलतट पर चुपचाप खड़ी रहीं। तब वह धीरे-धीरे पानी मे उतरी। प्रेमशंकर ने देखा अब विलम्व करने का अवसर नही है। उन्होंने एक छलाँग मारी और अन्तिम सीढ़ी पर खड़े हो कर श्रद्धा को जोर से पकड़ लिया । श्रद्धा चौंक पडी, सशक हो कर बोली--कौन है, दूर हट ।

प्रेमशकर ने सदोष नेत्रो से देख कर कहा, मैं हूँ अभागा प्रेमशंकर । श्रद्धा ने पति की ओर ध्यान से देखा और भयभीत हो कर बोली, आप --यहाँ ?

प्रेमशकर--हाँ, आज अदालत ने मुझे बरी कर दिया। चचा साहब के यहाँ दावत थी। भोजन करके निकला तो तुम्हे इधर आते देखा। साथ हो लिया । अब ईश्वर के लिए पानी से निकलो । मुझपर दया करो।

श्रद्धा पानी से निकल कर जीने पर आयी और कर जोड़ कर गंगा को देखती हुई बोली, माता, तुमने मेरी विनती सुन ली, किस मुँह से तुम्हारा यश गाऊँ । इस अभागिनी को तुमने तार दिया।

प्रेम--तुम अँधेरे में इतनी दूर कैसे चली आयी ? डर नहीं लगा ?

श्रद्धा--मैं तो यहाँ कई दिनों से आती हूँ, डर किस बात का ?

प्रेम--क्या यहाँ के बदमाशो का हाल नही जानती ?

श्रद्धा ने कमर से छुरा निकाल लिया और बोली, मेरी रक्षा के लिए यह काफी है। संसार मे जब दूसरा कोई सहारा नहीं, होता तो आदमी निर्भय हो जाता है।

प्रेम--घर के लोग तुम्हे यो आते देख कर अपने मन में क्या कहते होगे ?

श्रद्धा--जो चाहे समझें, किसी के मन पर मेरा क्या वश हैं? पहले लोक-लाज का भय था । अब वह भय नहीं रहा, उसका मर्म जान गयी। वह रेशम का जाल है, देखने में सुन्दर, किन्तु कितना जटिल । वह बहुधा धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म बना देता है।

प्रेमशकर का हृदय उछलने लगा, बोले, ईश्वर, मेरा क्या भाग्य-चन्द्र फिर उदित होगा ? श्रद्धा, मैं तो तुमसे सत्य कहता हूँ मेरी कितनी ही बार इच्छा हुई कि फिर अमेरिका लौट जाऊँ; किन्तु आशा का एक अत्यन्त सूक्ष्म, काल्पनिक बन्धन पैरों मे वेडियों का काम करता रहा। मैं सदैव अपने चारो ओर तुम्हारे प्रेम और सत्य व्रत को फैले हुए देखता हूँ। मेरे आत्मिक अन्धकार में यही ज्योति दीपक का काम देती