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प्रेमाश्रम

है । मैं तुम्हारी सदिच्छाओ को किसी सघन वृक्ष की भाँति अपने ऊपर छाया हालते हुए अनुभव करता हूँ। मुझे तुम्हारी अकृपा में दया, तुम्हारी निष्ठुरता मे हार्दिक स्नेह, तुम्हारी भक्ति में अनुराग छिपा हुआ दीखता है। अब मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे ही उद्धार के लिये तुम यह अनुष्ठान कर रही हो। यदि मेरा प्रेम निष्काम होता तो मैं इस आत्मिक सयोग पर ही संतोष करता, किन्तु मैं रूप और रस का दास हूँ, इच्छाओ और वासनाओं का गुलाम, मुझे इस आत्मानुराग से सतोष नहीं होता ।

श्रद्धा--मेरे मन से यह शका कमी दूर नहीं होती कि आपसे मेरा मिलना अधर्म है और अधर्म से मेरा हृदय काँप उठता है ।

प्रेम--यह शका कैसै शान्त होगी ?

श्रद्धा--आप जान कर मुझसे क्यों पूछते हैं ?

प्रेम--तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ।

श्रद्धा--प्रायश्चित से ।

प्रेम--वहीं प्रायश्चित जिसका विधान स्मृतियो मे है ?

श्रद्धा--हाँ, वही ।

प्रेम--क्या तुम्हे विश्वास है कि कई नदियों में नहाने से, कई लकडियो को जलाने से, घृणित वस्तुओं के खाने से,ब्राह्मणो को खिलाने से मेरी अपवित्रता जाती रहेगी ? खेद है कि तुम इतनी विवेकशील हो कर इतनी मिथ्यावादिनी हो ।

श्रद्धा का एक हाथ प्रेमशकर के हाथ में था। यह कथन सुनते ही उसने हाथ खीच लिया और दोनो अँगूठो से दोनो कान बन्द करते हुए बोली, ईश्वर के लिए मेरे सामने शास्त्रो की निंदा मत करो। हमारे ऋषि-मुनियो ने शास्त्रों में जो कुछ लिख दिया है वह हमे मानना चाहिए । उनमे मीन-मेष निकालना हमारे लिये उचित नही । हममें इतनी बुद्धि कहाँ है कि शास्त्रों के सभी आदेशो को समझ सके ? उनको मानने मे ही हमारी कल्याण है ।

प्रेम--मुझसे वह काम करने को कहती हो जो मेरे सिद्धान्त और विश्वास के सर्वथा विरुद्ध है। मेरा मन इसे कदापि स्वीकार नहीं करता कि विदेश-यात्रा कोई पाप है। ऐसी दशा में प्रायश्चित की शर्त लगा कर तुम मुझपर बडा अन्याय कर रही हो।

श्रद्धा ने लम्बी साँस खीच कर कहा, आपके चित्त से अभी अहकार नही मिटा । जब तक इसे न मिटाइएगा, ऋषियो की बाते आपकी समझ में न आयेगी।

यह कह कर वह सीढियों पर चढ़ने लगी । प्रेमशंकर कुछ न बोल सके । उनको रोकने का भी साहस न हुआ । श्रद्धा देखते-देखते सामने गली में घुसी और अन्धकार मे विलुप्त हो गयी ।

प्रेमशकर कई मिनट तक वही चुपचाप खड़े रहे, तब वह सहसा इसी अर्द्ध चैतन्यावस्था से जगे, जैसे कोई रोगी देर तक मूर्छित रहने के बाद चौक पडे । अपनी अवस्था का ज्ञान हुआ । हा ! अवसर हाथ से निकल गया। मैंने विचार को मनुष्य से उत्तम समझा । सिद्धान्त मनुष्य के लिए है, मनुष्य सिद्धान्तो के लिए नहीं है। मैं इतना भी