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प्रेमाश्रम

पद्म--जब से मोटर आयी है माया का मिजाज ही नही मिलता । यहाँ कोई मोटर का भूखा नही है।

यो बाते करते हुए दोनो सीडी पर बैठ गये । प्रेमशंकर उठकर उनके पास आये और कुछ कहना चाहते थे कि पद्मशकर ने चौककर जोर से चीख मारी और तेजशकर खड़ा होकर कुछ बुदबुदाने और छू-छू करने लगा। प्रेमशकर बोले, डरो मत, मैं हूँ ।

तेज--चचा साहब ! आप यहाँ इस वक्त कैसे आये ?

पद्म--मुझे तो ऐसी शंका हुई कि कोई प्रेत आ गया ।

प्रेम--तुम लोग इस पाखण्ड में पड़कर अपना समय व्यर्थ गँवा रहे हो। यह बडे जोखिम का काम है और तत्व कुछ नही। इन मन्त्रो को जगाकर तुम जीवन में सफलता प्राप्त नही कर सकते । चित्त लगाकर पढो, उद्योग करो, सच्चरित्र बनो। घन और कीर्ति का यही महामन्त्र है। यहाँ से उठो।

तीनों आदमी घर की ओर चले। रास्ते-भर प्रेमशंकर दोनों किशोरों को समझाते रहे । घर पहुँचकर वे फिर निद्रा देवी की आराधना करने लगे, मच्छरो की जगह अब उनके सामने एक और बाधा आ खडी हुई। यह श्रद्धा का अन्तिम वाक्य था, 'तुम्हारे चित्त से अभी अहंकार नहीं मिटा ।' प्रेमशकर बडी निर्दयता से अपने कृत्यो का समीक्षण कर रहे थे। अपने अन्त करण के एक-एक परदे को खोलकर देख रहे थे और प्रतिक्षण उन्हें विश्वास होता जाता था कि मैं वास्तव में अहकार का पुतला हूँ। वह अपने किसी काम को, किसी संकल्प को अहकार-रहित न पाते थे। उनकी दया और दीन-भक्ति में भी अहकार छिपा हुआ जान पडता था। उन्हें शका हो रही थी, क्या सिद्धान्त-प्रेम अहकार का दूसरा स्वरूप है। इसके विपरीत श्रद्धा की धर्मपरायणता में अहकार की गन्ध तक न थी।

इतने मे ज्वालासिंह ने आकर कहा, क्या सोते ही रहिएगा ? सवेरा हो गया ।

प्रेमशकर ने चौक कर द्वार की ओर देखा तो वास्तव में दिन निकल आया था। बोले, मुझे तो मच्छरों के मारे नीद ही नहीं आयी । आँखे तक न झपकी ।

ज्वाला--और यहाँ एक हीं करवट में भोर हो गया ।

प्रेमशकर उठ कर हाथ-मुँह धोने लगे । आज उन्हें बहुत काम करना था। ज्वाला सिह भी स्नानादि से निवृत्त हुए । अभी दोनो आदमी कपड़े पहन ही रहे थे कि तेजशकर जलपान के लिए ताजा हलुआ, सेव का मुरव्वा, तले हुए पिस्ते और बादाम तथा गर्म दूध लाया । ज्वालासिंह ने कहा, आपके चचा साहब बडे मेहमाननवाज आदमी हैं । ऐसा जान पडता है कि आतिथ्य-सत्कार में उन्हें हार्दिक आनन्द आता है और एक हम है कि मेहमान की सूरत देखते ही मानो दब जाते है। उनका जो कुछ सत्कार करते हैं वह केवल प्रथा-पालन के लिए, मन से यही चाहते हैं कि किसी तरह यह व्याधि सिर से टले ।

प्रेम--वे पवित्र आत्माएँ अत्ब संसार से उठती जाती हैं। अब तो जिधर देखिए