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प्रेमाश्रम

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रेमशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे । इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसेन ने कमरे में प्रवेश किया और ज्वालासिंह को देखते ही सलाम करके उनके सामने खड़े हो गये। उनके साथ एक हिन्दू युवक और भी था जो चाल ढाल से धनाढ्य जान पड़ता था ।

ज्वालासिंह--बोले, आइए-आइए ! मिजाज तो अच्छा हैं ? आजकल किसकी पेशी में हैं ?

ईजाद--जब से हुजूर तशरीफ ले गये, मैंने भी नौकरी को सलाम किया । जिन्दगी शिकमपर्वरी में गुजर जाती थी । इरादा हुआ कुछ दिन कौम की खिदमत करूँ। इसी गरज से अंजुमन इत्तहाद खोल रखी है। उसका मकसद हिन्दू मुसलमानों में मेल-जोल पैदा करना है। मैं इसे कौम का सबसे अहम (महत्त्वपूर्ण) मसला समझता हूँ। दोनों साहब अगर अंजुमन को अपने कदमों से मुमताज फरमायें तो मेरी खुशनसीबी ही है ।

ज्वाला--आप वाकई कौम की सच्ची खिदमत कर रहे हैं।

ईजाद--शुक्र है, जनाब की जबान से यह कलाम निकला। यहाँ मुझे मियाँ "इत्तहाद” कह कर मेरा मजाक उड़ाया जाता है। अंजुमन पर आवाजें कसी जाती हैं । मुझे खुदमतलब और खुदगरज कहा जाता है। यह सब जिल्लत उठाता हूँ। दोनों कौमों के बाहमी निफाक को देखता हूँ तो जिगर के टुकड़े हो जाते हैं। वह मुहब्बत और एखलाक जिस पर कौम की हस्ती कायम है, रोज-बरोज गायब होती जाती है। अगर एक हिन्दू इसलाम पर यकीन लाता है तो शोर मच जाता है कि हिन्दू कौम तबाह हुई जाती है। अगर एक हिन्दू कोई ऊँचा ओहदा पा जाता है तो मुसलमानों में 'हाय ! हाय !' की सदा उठने लगती है। कोई कहता है इसलाम गारत हुआ; कोई कहता है इसलाम की किश्ती भँवर में पड़ी । लाहौल विला कूअत ! मजहब रूहाना तसकीन और नजात का जरिया है न कि दुनिया के कमाने का ढकोसला । इस बाहमी कुदूरत को हमारे मुल्ला और पण्डित और भी भड़काते हैं। मेरी आवाज नक्कारखाने में तूती की सदा है। पर कौमी दर्द, कौमी गैरत चुप नहीं बैठने देती । गला फाड़-फाड़ चिल्लाता हूँ, कोई सुने या न सुने । अंजुमन में इस वक्त सौ मेम्बर हैं । कोई सत्तर हिन्दू साहबान हैं और तीस मुसलमान । उनके इन्तजाम से एक कुतुब-खाना और मदरसा चलता है। अंजुमन का इरादा है कि एक इत्तहादी इबादतगाह बनाया जाय, जिसके एक जानिब शिवाला हो और दूसरे जानिब मस्जिद । एक यतीमखाने की बुनियाद डाल दी गयी है। दोनों कौमों के यतीमों को दाखिल किया जाता है। मगर अभी तक इमारतें नहीं बन सकीं । यह सब इरादे रुपये के मुहताज हैं । फकीर ने तो अपना सेव कुछ निसार कर दिया। अब कौम को अख्तियार है, उसे चलाये या बन्द कर दे। क्यों डाक्टर साहब, मेरा हिब्बनामा आपने तैयार फरमाया ?