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प्रेमाश्रम

आदमी, बातचीत करने की तमीज नही है, जभी तो रोज धक्के खाते है। इनकी मन्शा है कि आप दावा दायर करें, लेकिन यह मामले को तूल नही देना चाहते, सिर्फ अलहदा होना चाहते हैं। क्यो ठीक है न ?

मथुरादास--(सरल भाव से) जी हाँ, बस यही चाहता हूँ कि उनसे मेरी राजी-खुश हो जाय ।

मुन्शी रमजानअली मुहर्रिर थे । ईजादहुसेन मथुरादाम को उनके कमरे में ले गये। वहाँ खासा दफ्तर था। कई आदमी बैठे लिख रहे थे । रमजान अली ने पूछा, कितने का दावा होगा ?

ईजाद--यही कोई एक लाख का ।

रमजान अली ने वकालतनामा लिखा । कोर्ट फीस, तलवाना, मेहनताना, नजराना आदि वसूल किये, जो मथुरादास ने ईजाद हुसेन की ओर अविश्वास की दृष्टि से देखते हुए दिये, जैसे कोई किसान पछता-पछता कर दक्षिणा के पैसे निकालता है। और तब दोनों सज्जनो ने घर की राह ली।

रास्ते मे मथुरादास ने कहा, अपने जबरदस्ती मुझे भैया से लड़ा दिया। सैकडौ रुपये की चपत पड गयी और अभी कोर्ट फीस बाकी ही है।

ईजाद हुसेन बोले, एहसान तो न मानोगे कि भाई की गुलामी से आजाद होने का इन्तजाम कर दिया । आधी दूकान के मालिक बन कर बैठोगे, उल्टे और शिकायत करते हो ।



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डाक्टर प्रियनाथ चोपडा बहुत ही उदार, विचारशील और सहृदय सज्जन थे ! चिकित्सा का अच्छा ज्ञान था और सबसे बड़ी बात यह है कि उनका स्वभाव अत्यन्त कोमल और नम्र था। अगर रोगियों के हिस्से की शाक-भाजी, दूध-मक्खन, उपले-ईंधन को एक भाग उनके घर में पहुँच जाता था तो यह केवल वहाँ की प्रथा थी । उनके पहले भी ऐसा ही व्यवहार होता था। उन्होंने इसमें हस्तक्षेप करने की जरूरत न समझी। इसलिए उन्हें कोई बदनाम न कर सकता था और न उन्हें स्वय ही इसमें कुछ दूषण दिखायी देता था। वह कम वेतनवाले कर्मचारियों से केवल आधी फीस लिया करते थे और रात की फीस भी मामूली ही रखी थी । उनके यहाँ सरकारी चिकित्यालय से मुफ्त दबा मिल जाती थी, इसीलिए उनकी अन्य डाक्टरों से अधिक चलती थी । इन कारणों से उनकी आमदनी बहुत अच्छी हो गयी थी। तीन साल पहले वह यहाँ आये थे तो पैरगाड़ी पर चलते थे, अब एक फिटन थी । बच्चों को हवा खिलाने के लिए छोटी-छोटो सेजगाडियाँ थी। फर्निचर और फर्शे आदि अस्पताल के ही थे । नौकरो का वेतन भी गाँठ से न देना पड़ता था। पर इतनी मितव्ययिता पर भी वह अपनी अवस्था की तुलना जिले के सब-इजीनियर या कतिपय वकीलो से करते थे तो