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प्रेमाश्रम

उन्हें विशेष आनन्द न होता था। यद्यपि उन्हें कभी-कभी ऐसे अवसर मिलते थे जो उनकी आर्थिक कामनाओं को सफल कर सकते थे, पर उनकी विचारशीलता भी उन्हें बहकने न देती थी । कालेज छोड़ने के बाद कई वर्ष तक उन्होंने निर्भीकता से अपने कुर्तव्य का पालन किया था, लेकिन जब कई बार पुलिस के विरुद्ध गवाही देने पर मुँह की खानी पड़ी तो चेत गये । वह नित्य पुलिस का रुख देख कर अपनी नीति स्थिर किया करते थे तिसपर भी अपने निदानों को पुलिस की इच्छा के अधीन रखने में उन्हें मानसिक कष्ट होता था । अतएव जब गौस खाँ की लाश उनके पास निरीक्षण के लिए भेजी गयी तो वह बड़े असमंजस में पड़े । निदान कहता था कि यह एक व्यक्ति का काम है, एक ही बार में काम तमाम हुआ है, किन्तु पुलिस की धारणा थी कि यह एक गुट्ट का काम है। वेचारे बड़ी दुविधा में पड़े हुए थे। यह महत्त्वपूर्ण अभियोग था । पुलिस ने अपनी सफलता के लिए कोई बात उठा न रखी थी। उसका खंडन करना उससे बैर मोल लेना था और अनुभव से सिद्ध हो गया था कि यह बहुत मँहगा सौदा है । गुनाह था मगर वेलज्जत। कई दिन तक इसी हैस-बैस में पड़े रहे; पर बुद्धि कुछ काम न करती थी। इसी बीच में एक दिन ज्ञानशंकर उनके पास रानी गायत्री देवी का एक पत्र और ५०० रु० पारितोपिक ले कर पहुँचे । रानी महोदया ने उनकी कीर्ति सुन कर अपनी गुण-ग्राहकता का परिचय दिया था। उनसे शिशु-पालन पर एक पुस्तक लिखवाना चाहती थीं। इसके अतिरिक्त उन्हें अपना गृह चिकित्सक भी नियत किया था और प्रत्येक 'विजिट' के लिए १०० रु० का वादा था । डाक्टर साहब फूले न समाये । ज्ञानशंकर की ओर अनुग्रहपूर्ण नेत्रों से देख कर बोले, श्रीमती जी की इस उदार गुणग्राहकता का धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। आप मुझे अपना सेवक समझिए । यह सब आपकी कृपादृष्टि है, नहीं तो मेरे जैसे हजारों डाक्टर पड़े हुए हैं । ज्ञानशंकर ने इसका यथोचित उत्तर दिया। इसके बाद देश-काल सम्बन्धी विषयों पर वार्तालाप होने लगा । डाक्टर साहब का दावा था कि मैं चिकित्सा में आई० एम० एस० वालों से कहीं कुशल हूँ और ऐसे असाध्य रोगियों का उद्धार कर चुका हूँ जिन्हें मर्वज्ञ आई० एम० एस० बालों ने जवाब दे दिया था। लेकिन फिर भी मुझे इस जीवन में इस पराधीनता से मुक्त होने की कोई आशा नहीं । मेरे भाग्य में विलायत के नवशिक्षित युवकों की मातहती लिखी हुई है।

ज्ञानशंकर ने इसके उत्तर में देश की राजनीतिक परिस्थिति का उल्लेख किया । चलते समय उनसे बडे निःस्वार्थ भाव से पूछा, लखनपुर के मामले में आपने क्या निश्चय किया ? लाश तो आपके यहाँ आयी होगी ?

प्रियनाथ--जी हाँ, लाश आयी थी। चिह्न से तो यह पूर्णतः सिद्ध होता है कि यह केवल एक आदमी का काम है, किन्तु पुलिस इसमें कई आदमियों को घसीटना चाहती है। आपसे क्या छिपाऊँ, पुलिस को असन्तुष्ट नहीं कर सकता, लेकिन यों निरपराबियों को फँसाते हुए आत्मा को घृणा होती है।

ज्ञानशंकर-–सम्भव है आपने चिह्न से जो राय स्थिर की है वहीं मान्य हो, लेकिन