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प्रेमाश्रम

उदासी छायी हुई थी। प्रिंयनाथ के बयान ने उन्हें हताश कर दिया था। वह यह कल्पना भी नही कर सकते थे कि ऐसा उच्च पदाधिकारी प्रलोभनो के फेर में पड़ कर असत्य की ओर जा सकता है। सभी गर्दन झुकाये चले जाते थे। अकेला मनोहर रो रहा था ।

इतने में प्रियनाथ की फिटने सड़क से निकली। अभियुक्तो ने उन्हे अवहेलनापूर्ण नेत्रों में देखा । मानो कह रहे थे, 'आपको हम दीन-दुखियो पर तनिक भी दया न आयी ।' डाक्टर साहब ने भी उन्हें देखा, आँखों में ग्लानि का भाव झलक रहा था।



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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तो का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आये । यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठियाँ गयी थी। मायाशकर को भी साथ लाये । विद्या ने बहुत कहा कि मेरा जी घबड़ायेगा, पर उन्होंने न माना।

इस एक महीने में ज्ञानशकर ने वह समस्या हल कर ली थी जिस पर वह कई सालों से विचार कर रहे थे। उन्होंने वह मार्ग निर्धारित कर लिया था जिससे गायत्री देवी के हृदय तक पहुँच सके । इस मार्ग की दो शाखाएँ थी, एक विरोधात्मक और दूसरी विघानात्मक । ज्ञानशकर ने यहीं दूसरा मार्ग ग्रहण करना निश्चय किया । गायत्री के धार्मिक भावो को हटाना, जो किसी गढ की दुर्भद्य दीवारो की भाँति उसको वासनाओं से बचाये हुए थे, दुस्तर था। ज्ञानशकर एक बार इस प्रयत्न में असफल हो चुके थे और कोई कारण नही था कि उस सावन का आश्रय ले कर वह फिर असफल न हो। इसकी अपेक्षा दूसरा मार्ग सुगम और सुलभ था। उन धार्मिक भावो को हटाने के बदले उन्हें ओर दृढ़ क्यो न कर दूँ । इमारत को विध्वस करने के बदले उसी भित्ति पर क्यो न और रहें चढा दूँ ? उसको अपना बनाने के बदले क्यो न आप ही उसका हो जाऊँ?

ज्ञानशकर ने गोरखपुर आ कर पहले से भी अधिक उत्साह और अध्यवसाय से काम करना शुरू किया । धर्मशाला का काम स्थगित हो गया था । अब की ठेकेदारो से काम न ले कर उन्होंने अपनी ही निगरानी मे बनबाना शुरू किया। उसके सामने ही एक ठाकुरद्वारे का शिलारोपण भी कर दिया। वह नित्य प्रति प्रात काल मोटर पर सवार हो कर घर से निकल जाते और इलाके का चक्कर लगा कर सन्ध्या तक लौट आते । किसी कारिन्दे या कर्मचारी की मजाल न थी कि एक कौडी तक खा सके। किसी शहना या चपरासी की ताव न थी कि असामियों पर किसी प्रकार की सख्ती कर सके और न किसी असामी का दिल था कि लगान चुकाने में एक दिन का भी विलम्ब कर सके । सहकारी बैंक का काम भी चल निकला । किसान महाजनों के जाल से मुक्त होने लगे और उनमें यह सामर्थ्य होने लगी कि खरीदारों के भाव पर जिन्स न बेच कर