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प्रेमाश्रम

अपने भाव पर बेच सके । ज्ञानशकर का यह सुप्रबन्ध और कार्यपटुता देख कर गायत्री की सदिच्छा श्रद्धा का रूप धारण करती जाती थी। वह विविधरूपसे प्रत्युपकार की चेष्टा करती। विद्या के लिए तरह-तरह की सौगात भेजती और मायाशकर पर तो जान ही देती थी। उसकी सवारी के लिए दो टाँघन थे, पढ़ाने के लिए दो मास्टर। एक सुबह को आता था, दूसरा शाम को। उसकी टहल के लिए अलग दो नौकर थे। उसे अपने सामने बुला कर नाश्ता कराती थी । आप अच्छी-अच्छी चीजे बना कर उसे खिलाती, कहानियाँ सुनाती और उसकी कहानियाँ सुनती । उसे आये दिन इनाम देती रहती । मायाशकर अपनी माँ को भूल गया । वह ऐसा समझदार, ऐसा मिष्टभापी, ऐसा विनयशील, ऐसा सरल बालक था कि थोड़े ही दिनों में गायत्री उसे हृदय से प्यार करने लगी।

ज्ञानशकर के जीवन में भी एक विशेष परिवर्तन हुआ। अब वह नित्य सन्ध्या समय भागवत की कथा सुना करते । दो-चार साधु-सन्त जमा होते, मेल-जोल के दस-पाँच सज्जन आ जाते, महल्ले के दो-चार श्रद्धालु पुरुष आ बैठते और एक छोटी-मोटी धार्मिक सभा हो जाती । यहाँ कृष्ण भगवान् की चर्चा होती, उसकी प्रेम-कथाएँ सुनायी जाती और कभी-कभी कीर्तन भी होता था। लोग प्रेम में मग्न हो कर रोने लगने और सबसे अधिक अश्रवर्षा ज्ञानशकर की ही ऑखो से होती थी। वह प्रेम के हाथ बिक गये थे।

एक दिन गायत्री ने कहा, अब तो आपके यहाँ नित्य कृष्ण-चर्चा होती है, पर्दे का प्रबन्ध हो जाय तो मैं भी आया करूँ। ज्ञानशकर ने श्रद्धापूर्ण नेत्रो से गायत्री को देखकर कहा, यह सब आप ही के सत्सग का फल है। अपने ही मुझे यह भक्ति-मार्ग दिखाया है और मैं आपको ही अपना गुरु मानता हैं । आज से कई मास पहले मैं माया-मोह मै फँसा हुआ, इच्छाओं का दास, वासनाओं का गुलाम और सामारिक बन्धनों में जकड़ा हुआ था। आपने मुझे बता दिया कि संसार में निर्लिप्त हो कर क्योकर रहना चाहिए । इतनी सम्पत्तिशालिनी हो कर भी आप सन्यासिनी हैं। आपके जीवन ने मेरे लिए सदुपदेश का काम किया है।

गायत्री ज्ञानशकर को विद्या और ज्ञान का अगाध सागर समझती थी। वह महान् पुरुष जिसकी लेखनी में यह सामर्थ्य हो कि मुझे रानी के पद से विभूषित करा दे, जिसकी वक्तृताओं को मुन कर बडे-बडे अँगरेज उच्चाधिकारी दंग रह जायें, जिसके सुप्रबन्ध की आज सारे जिले में धूम है, मेरा इतना भक्त हो, इस कल्पना से ही उसका गौरवशील हृदय विह्वल हो गया । ऐसे सम्मानो के अवसरों पर उसे अपने स्वामी की याद आ जाती थी। बिनीत भाव से बोली, बाबू जी यह सब भगवान की दया है। उन्होंने आपको यह भक्ति प्रदान की है नहीं तो लोग यावज्जीवन धर्मोपदेश सुन्ने रह जाते है और फिर भी उनके ज्ञानचक्षु नहीं खुलने । कहीं स्वामी से आपकी भेट हो गयी होती तो आप उनके दर्शनमात्र से ही मुग्ध हो जाते । वह धर्म और प्रेम के अवतार थे । मैं जो कुछ हूँ उन्ही की बनायी हुई हूँ । यथासाध्य उन्ही की शिक्षाओं का