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प्रेमाश्रम

आ रही है, इसी ने सारे गाँव को चौपट किया । फिर उसे ऐसी भावना हुई कि मर गया हूँ और कितने ही भूत-पिशाच मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं और कह रहे हैं कि इसी ने हमे दाने-दाने को तरसा कर मार डाला, यही पापी है, इसे पकड़ कर आग में झोंक दी । मनोहर के मुख से सहसा एक चीख निकल आयी । आँखें खुल गयी । कमरा खुब अँधेरा था, लेकिन जागने पर भी वही पैशाचिक भयकर मूर्तियाँ उसके चारों तरफ मँडराती हुई जान पड़ती थी। मनोहर की छाती बडे वेग से धड़क रही थी। जी चाहता था, बाहर निकल भागे, किन्तु द्वार बन्द थे ।

अकस्मात् मनोहर के मन मे यह विचार अकुरित हुआ--क्या मैं यहीं सब कीतुक देखने और सुनने के लिए जीयूँ ? सारा गाँव, सारा देश मुझसे घृणा कर रहा है। बलराज भी मन मे मुझे गालियाँ दे रहा होगा । उसने मुझे कितना समझाया, लेकिन मैंने एक न मानी । लोग कहते होगे सारे गाँव को बँधवा कर अब यह मुस्टडा बना हुआ। हैं। इसे तनिक भी लज्जा नहीं, सिर पटक कर मर क्यों नहीं जाता । वलराज पर भी चारो ओर से वौछारें पडती होगी, सुन-सुन कर कलेजा फटता होगा । अरे भगवान, यह कैसा उजाला है। नहीं, उजाला नहीं है। किमी पिशाच की लाल-लाल आँखें है, मेरी ही तरफ लपकी आ रही हैं। या नारायण ! क्या करूँ ? मनोहर की पिंडलियां काँपने लगी। यह लाल आँखें प्रतिक्षण उसके समीप आती जाती थी। वह न तो उधर देख हीं सकता था और न उधर से आँख ही हटा सकता था, मानो किसी आसुरिक शक्ति ने उसके नेत्रो को बाँध दिया हो । एक क्षण के बाद मनोहर को एक ही जगह कई आँखें दिखायी देने लगी, नही, प्रज्ज्वलित, अग्निमय, रक्तयुक्त नेत्रो का एक समूह है। वड नही, सिर नहीं, कोई अंग नही, केवल विदग्ध आँखे ही हैं, जो मेरी तरफ टूटे हुए तारो की भाँति सर्राटा भरती चली आती हैं । एक पल और हुआ, यह नेत्र समह शरीर-युक्त होने लगा और गौस खाँ के आहत स्वरुप में बदल गया। यकायक बाहर घडाक की आवाज हुई । मनोहर बदहवास हो कर पीछे की दीवार की ओर भागा, लेकिन एक ही पग में दीवार से टकरा कर गिर पड़ा, सिर में चोट आयी। फिर उसे जान पडा कि कोई द्वार का ताला खोल रहा है। तब किसी ने पुकारा, 'मनोहर ! मनोहर !' मनोहर ने आवाज पहचानी । जेल का दारोगा था। उसकी जान में जान आयी । कड़क कर बोला--हाँ साहब जागता हूँ। पैशाचिक जगत से निकल कर वह फिर चैतन्य संसार में आया। उसे अब नेत्र समूह का रहस्य खुला । दारोगा की लालटेन की ज्योति थी जो किवाड़ की दरारो से कोठरी में आ रही थी। इसी साधारण-सी बात ने उसे इतना सशक कर दिया था। दारोगा आज गश्त करने निकला था।

दारोगा के चले जाने के बाद मनोहर कुछ सावधान हो गया। शकोत्पादक कल्पनाएँ शान्त हुई, लेकिन अपने तिरस्कार और अपमान की चिन्ताओं ने फिर आ घेरा । सोचने लगा, एक वह है जो उजड़े हुए गाँवों को आबाद करते हैं और जिनका यश संसार गाता है। एक मैं हूँ जिसने गॉव को उजाड़ दिया। अब कोई भौर के समय मेरा नाम न लेगा । ऐसा जान पड़ता है कि सभी डामिल जायेंगे, एक भी न बचेगा।