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प्रेमाश्रम

चौधरी--फिर देख लीजिए, कोई रकम रह न गयी हो। मगर यह समझ लेना कि हिसाब से एक कौडी भी वेशी ली तो तुम्हारा भला न होगा ? ।

बिन्दा महाराज ने सशक हो कर कहा, खाँ साहब, जरा फिर से जोड़ लो।

कर्तार--सब जोड़ा-जोड़ाया है, रात-दिन तो यही किया करते है, लाओ निकालो १७५० रु० ।

चौधरी--१७५० रु० लेना है तो अदालत में ही लेना, यहाँ तो मैं १००० रू० से वेसी ने दूँगा ।

फैजू--और अदालत का खर्च ?

सहसा चौधरी ने अपना चिमटा उठाया और इतने जोर से फैजुल्लाह के सिर पर मारा कि वह जमीन पर गिर पहा । तब बोले, यही अदालत का खर्च है, जी चाहे और ले लो । बेईमान, पापी कही का । कारिन्दा बना फिरता है। कल का बनिया आज का सेठ । इतनी जल्द आँखों में चरखी छा गयी । तू भी तो किसी जमीदार का आसामी है। तेरा घर देख आया हूँ, तेरे मा-बाप, भाई-बन्धु सब का हाल देख आया हूँ । वहाँ उन सब का वेगार भरते-भरते कचूमर निकल जाया करता हैं। तूने चार अक्षर पढ़ लिये तो जमीन पर पाँव नही रखता । दीन-दुखियो को लूटता फिरता है । ६०० रु० की नालिश है, १०० रु० अदालत का खरच हैं। मैं कचहरी जा कर पेशक से पूछ आया । उसके तू १७५० रु० माँगता है । और क्यो रे ठाकुर, तू भी इस तुरुक के साथ पड़ कर अपने को भूल गया ? चिल्ला-चिल्ला कर रामायण पढता है, भागवत की कथा कहता है, ईंट-पत्थर के देवता बना कर पूजता है। क्या पत्थर पूजते-पूजते तेरा हृदय भी पत्थर हो गया? यह चन्दन क्यो लगाता है ? तुझे इसका क्या अधिकार हैं? तू धन के पीछे धरम को भूल गया ? तुझे धन चाहिए ? तेरे भाग्य में धन लिखा है तो यह थैली उठा ले। (यह कह कर चौधरी ने रुपयो की थैली कर्तार की ओर फेंकी) देख तो तेरे भाग्य मे धन हैं या नहीं ? तेरा मन इतना पापी हो गया है कि तू सोना भी छुए तो मिट्टी हो जायगा । थैली छू कर देख ले, अभी ठीकरी हुई जाती है ।

कर्तार ने पहले बडी धृष्ट अथद्धा से बातें करना शुरू की थी। वह यह दिखाना चाहता था, मैं साधुओं का भेष देख कर रोव में आनेवाला आदमी नहीं हूँ। ऐसे भोले-भाले काठ के उल्लू कही और होंगे पर चौधरी की यह हिम्मत देख कर और यह कठोपदेश सुन कर उसकी अभक्ति लुप्त हो गयी । उसे अब ज्ञान हुआ कि यह चौधरी नहीं है जो गौस खाँ की हाँ में हाँ मिलाया करता था, किन्तु बिना परीक्षा किये वह अब भी भक्ति-सूत्र में न बँधना चाहता था, यहाँ तक कि वह उनकी सिद्धि का परदा खोल कर उनकी खबर लेने पर उतारू था । उसने थैली को ध्यान से देखा, रुपयो से भरी हुई थीं । तब उसने डरने-डरते थैली उठायी, किंतु उसके छूते ही एक अत्यन्त विस्मयकारी दृश्य दिखायी दिया । रुपये ठीकरे हो गये । यह कोई मायालीला थी अथवा कोई जादू या सिद्धि, कौन कह सकता हैं । मदारी का खेल था या नजरबन्दी का तमाशा, चौधरी ही जाने । रुपये की जगह साफ लाल-लाल ठीकरे झलक रहे थे । कर्तार के हाथ से थैली छूट कर