महरी ने आ कर कहा, हजूर, जरा अन्दर चले, बेगम साहब बुला रही है। मुनीरा को कई दस्त और के आये हैं।
डाक्टर साहब—तो जरा कपूर का अर्क क्यों नही पिला देती? खाने में कोई बदपरहेजी हुई होगी। चीखने-चिल्लाने की क्या जरूरत है?
महरी—हजूर, दवा तो पिलायी है। जरा आप चल कर देख लें। बेगम साहब डाक्टर बुलाने को कहती हैं।
इर्फानअली झल्लाये हुए अन्दर गये और बेगम से बोले, तुमने क्या जरा सी बात का तूफान मचा रखा है?
बेगम—मुनीरा की हालत अच्छी नहीं मालूम होती। जरा चल कर देखो तो। उसके हाथ-पाँव अकड़े जाते हैं। मुझे तो खौफ होता है, कही कालरा न हो।
इर्फान—यह सब तुम्हारा बहम है। सिर्फ खाने-पीने की बेएहतियाती है, और कुछ नहीं। अर्क-कपूर दो-दो घंटे बाद पिलाती रहो, शाम तक सारी शिकायत दूर हो जायगी। घबड़ाने की जरूरत नहीं। मैं इसी ट्रेन से जरा गोरखपुर जा रहा हूँ। तीनचार दिन में वापस आऊँगा। रोजाना खैरियत की इत्तला देती रहना। मैं रानी गायत्री के बँगले में ठहरूंगा।
बेगम ने उन्हें तिरस्कार भाव से देख कर कहा, लड़की की यह हालत है और आप इसे छोड़े चले जाते हैं। खुदा न करे, उसकी हालत ज्यादा खराब हुई तो?
इर्फान—तो मैं रह कर क्या करूँगा? उसकी तीमारदारी तो मुझसे होगी ही नहीं और न बीमारी से मेरी दोस्ती है कि मेरे साथ रियायत करे।
बेगम–लड़की की जान को खुदा के हवाले करते हो, लेकिन रुपये खुदा के हवाले नहीं किये जाते! लाहौल विलाकूवत! आदमी में इन्सानियत न हो, औलाद की मुहब्बत तो हो! दौलत की हवस औलाद के लिए होती हैं। जब औलाद ही न रही, तो रुपयों का क्या अलाव लगेगा?
इर्फान—तुम अहमक हो, तुमसे कौन सिर-मगजन करे?
यह कह कर वह बाहर चले आये, मोटर पर बैठे और स्टेशन की तरफ चल पड़े।
३९
सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस बारह वस्त्र विहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और तालिकवारी की रट लगाया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ याद करने लगते तो कानों पड़ी आवाज न सुनायी देती। मालूम होता, बाजार लगा हुआ हो। इस हरवोग मे लौंडे गालियां बकते, एक दूसरे को मुँह चिढ़ाते, चुटकियाँ काटते। यदि कोई लड़का शिकायत करता तो सब के सब मिल कर ऐसा कोलाहल मचाते कि उसकी आवाज ही दब जाती थी। बरामदे के मध्य में मौलवी साहब का तख्त था। उस पर