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प्रेमाश्रम

एक दढियल मौलवी लुगी बाँधे, एक मैला-कुचैला तकिया लगायें अपना मदरिया पिया करते और इस कलरव में भी शान्तिपूर्वक झपकियाँ लेते रहते थे। उन्हे हुक्का पीने का रोग था। एक किनारे अँगीठी मे उपले सुलगा करते थे और चिमटा पड़ा रहता था। चिलम भरना बालको के मनोरंजन की मुख्य सामग्री थी। उनकी शिक्षोन्नति चाहे बहुत प्रशंसा के योग्य न हो, लेकिन गुरु-सेवा में सबके सब निपुण थे। यहाँ सैयद ईजाद हुसेन का "इत्तहादी यतीमखाना" था।

किन्तु बरामदे के ऊपरवाले कमरे में कुछ और ही दृश्य था। साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था, कालीन और मसनद भी करीने से सजे हुए थे। पानदान, सदान, उगालदान आदि मौके से रखे हुए थे। एक कोने में नमाज पढ़ने की दरी बिछी हुई थी। तस्वीह खूटी पर लटक रही थी। छत मे झालरदार छतगीर थी, जिसकी शोभा रंगीन हाँसियों से और भी बढ़ गयी थी। दीवारें बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अलंकृत थी।

प्रातः काल था। मिर्जा साहब मसनद लगाये हारमोनियम बजा रहे थे। उनके सम्मुख तीन छोटी छोटी सुन्दर बालिकाएँ बैठी हुई डाक्टर इकबाल की सुविख्यात रचना शिवाजी' के शेरो को मधुर स्वर में गा रही थी। ईजाद हुसेन स्वय उनके साथ गा कर ताल-स्वर बताते जाते थे। यह "इत्तहादी यतीमखाने” की लडकियाँ बतायी जाती थी, किन्तु वास्तव में एक उन्हीं की पुत्री और दो भाजियाँ थी। 'इत्तहाद' के प्रचार में यह त्रिमूर्ति लोगो को वशीभूत कर लेती थी। एक घटे के अभ्यास के बाद मिर्जा साहब ने प्रसन्न हो सगर्व नेत्रों से लडकियों को देखा और उन्हें छुट्टी दी। इसके बाद लड़को की बारी आयी। किन्तु यह मकतबवाले, दुर्बल, वस्त्रहीन बालक न थे। थे तो चार हो, पर चारों स्फुति और सजीवता की मूर्ति थे। सुन्दर, सुकुमार, सवस्त्रित, चहकते हुए घर में से आये और फर्श पर बैठ गये। मिर्जा साहब ने फिर हारमोनियम के स्वर मिलाये और लड़को ने हक्कानी में एक गजल गानी शुरू की, जो स्वयं मिर्जा साहब की सुरचना थी। इसमे हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक सुन्दर वाटिका से उपमा दी गयी थी और जनता से अत्यन्त करुण और प्रभावयुक्त शब्दों में प्रेरणा की गयी थी कि वह इस बाग को अपनाये, उसकी रमणीकता का आनन्द उठायें और द्वेष तथा वैमनस्य की कटकमय झाड़ियों में न उलझे। लड़को के सुकोमल, ललित स्वरों मे यह गजब ढाती थी। भावों को व्यक्त करने में भी यह बहुत चतुर थे। यह 'इत्तहादी यतीमखाने के लडके बताये जाते थे, किन्तु वास्तव में यह मिर्जा साहब की दोनों बहनों के पुत्र थे।

मिर्जा साहब अभी गानाभ्यास में मग्न थे कि इतने में एक आदमी नीचे से आया और सामने खड़ा हो कर बोला, लाला गोपालदास ने भेजा है और कहा है आज हिसाब चुकता न हो गया तो कल नालिश कर दी जायगी। कपड़े का व्यवहार महीने दो महीने का है और आपको कपड़े लिये तीन साल से ज्यादा हो गये।

मिर्जा साहब ने ऐसा मुँह बनाया, मानों समस्त ससार का चिन्ता-भार उन्हीं के सिर पर लदा हुआ हो और बोले, नालिश क्यों करेंगे? कह दो थोड़ा सा जहर भेज दे, खा कर मर जाऊँ। किसी तरह दुनियाँ से नजात मिले। उन्हें तो खुदा ने लाखों दिये