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प्रेमाश्रम


हैं, घर में रुपयो के ढेर लगे हुए है। उन्हें क्या खवर कि यहाँ जान पर क्या गुजर रही है? कुन्बा वड़ा, आमदनी को कोई जरिया नही, दुनिया चालाक हत्थे नही चढती, क्या करूँ! मगर इन्शा अल्लाह— एक महीने के अन्दर आ कर सब नया-पुराना हिसाब साफ कर दूँँगा। अबकी मुझे वह चाल सुझी हैं जो कभी पट ही नही पड सकती। इन लडको की गजलें सुन कर मजलिसे फडक उठेगी। जा कर सैठ जी से कह दो, जहाँ इतने दिन सब्र किया है, एक महीना और करें।

प्यादे ने हँस कर कहा, आप तो मिर्जा साहब, ऐसे ही बातें करके टाल देते हैं और वहाँ मुझपर लताड पड़ती है। मुनीम जी कहते हैं, तुम जाते ही न होंगे या कुछ ले-दे के चले आते होगे!

मिर्जा साहब ने एक चवन्नी उसके भेंट की। उसके चले जाने के बाद उन्होंने मौलवी साहब को बुलाया और बोले, क्यो मियाँ अमजद, मैंने तुमसे ताकीद कर दी थी कि कोई आदमी ऊपर न आने पाये। इस प्यादे को क्यो आने दिया? मुँँह में दही जमा हुआ था? इतना कहते न बनता था कि कही बाहर गये हुए हैं। अगर इस तरह तुम लोगों को आने दोगे तो सुबह से शाम तक ताँता लगा रहे। आखिर तुम किस मरज की दवा हो?

अमजद— मैं तो उससे बार-बार कहता रहा कि मियाँ कहीं बाहर गये हुए हैं, लेकिन वह जबरदस्ती जीने पर चढ़ आया। क्या करता, उससे क्या फौजदारी करता?

मिर्जा— वेशक उसे धक्का दे कर हटा देना चाहिए था।

अमजद– तो जनाव रुग्वी रोटी और पतली दाल में इतनी ताकत नही होती, उसपर दिमाग लौड़े चर जाने हैं। हाथ-पाई किस बूते पर करूँँ? कभी सालन तक नसीब नहीं होता। दरवाजे पर पड़ा-पड़ा मसाले और प्याज की खुशबू लिया करता हूँ। सारा घर पुलाव और जरदे उडाता है, यहाँ खुश्क रोटियों पर ही वसर है। बस्तरवान पर खाने को तरस गया। रोज वही मिट्टी की प्याली सामने आ जाती है। मुझे भी तर माल खिलाइए। फिर देखूँ, कौन घर में कदम रखता है।

मिर्जा— लाहौल विलाकूवत, तुम हमेशा पैट का ही रोना रोते रहे। अरे मियाँ, खुदा का शुक्र करो कि बैठे-बैठे रौटियाँ तो तोड़ने को मिल जाती हैं, बर्ना इस वक्त कही फक-फक फाँय-फाँँय करते होते।

अमजद— आपसे दिल की बात कहता हूँ तो आप गालियाँ देने लगते है। लीजिए, जाता हूँ, अब अगर सूरत दिखाऊँ तो समझिएगा कोई कमीना था। खुदा ने मुँह दिया तो रोजी भी देगा। इस सुदेशी के जमाने में मैं भूख न मरूँँगा।

यह कह मियाँँ अमजद सजल नेत्र हो उतरने लगे, कि ईजाद हुसेन ने फिर बुलाया और नम्रता से बोले, आप तो बस जरा सी बात पर बिगड जाते हैं। देखते नही हो यहाँ घर में कितना खर्च है? औलाद की कसरत खुदा की मार है, उस पर रिस्तेदारो का बटोर टिड्डियों का दल है जो आन की आन दरख्त ठूँठ कर देता है। क्या करूँ? औलाद की परवरिश फर्ज ही हैं और रिश्तेदारों से वैमुरीवत करना अपनी आदत नहीं।