पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८
प्रेमाश्रम

सिंह के इजलास में दारोगा साहब पर मुकदमा दायर कर दिया। इलाके में आग सुलग रही थी, हवा पाते ही भड़क उठी। चारो तरफ से झूठे-सच्चे इस्तगासे होने लगे। अत में ज्वालासिंह को विवश हो कर इन मामलो की छानबीन करनी पड़ी। सारा रहस्य खुल गया। उन्होंने पुलिस के अधिकारियो को रिपोर्ट की। दयाशकर मुअत्तल हो गये, उन पर रिश्वत लेने और झूठे मुकदमे बनाने के अभियोग चलने लगे। पासा पलट गया; उन्होंने जमींदार को हिरासत में लिया था, अब खुद हिरासत में आ गये। लाला प्रभाशंकर के उद्योग से जमानत तो मजूर हो गयी, लेकिन अभियोग इतने सप्रमाण थे कि दयाशकर के बचने की बहुत कम आशा थी। वह स्वय निराश थे। सिट्टी-पट्टी भूल गयी, मानो किसी ने बुद्धि हर ली हो। जो जबान थाने की दीवारों को कम्पित कर दिया करती थी, वह अब हिलती भी न थी। वह बुद्धि जो हवा में किले बनाती रहती थी, अब इस गुत्थी को भी न सुलझा सकती थी। कोई कुछ पूछता तो शून्य भाव से दीवार की ओर ताकने लगते। उन्हें खेद न था, लज्जा न थी, केवल विस्मय था कि मैं इस दलदल में कैसे फंस गया? वह मौन दशा में बैठे सोचा करते, मुझसे यह भूल हो गयी, अमुक बात बिगड़ गयीं, नहीं तो कदापि नही फंसता। विपत्ति में भी जिस हृदय मे सद्ज्ञान न उत्पन्न हो वह सूखा वृक्ष है, जो पानी पा कर पनपता नही, बल्कि सड़ जाता है। ज्ञानशकर इस दुरवस्था में अपने सम्बन्धियो की सहायता करना अपना धर्म समझते थे; किंतु इस विषय मे उन्हें किसी से कुछ कहते हुए संकोच ही नहीं होता, वरन् जब कोई दयाशकर के व्यवहार की आलोचना करने लगता, तब वह उसका प्रतिवाद करने के बदले उससे सहमत हो जाते थे।

लाला प्रभाशकर ने बेटे को बरी कराने के लिए कोई बात उठा नही रखी। वह रात-दिन इसी चिंता मे डूबे रहते थे। पुत्र-प्रेम तो था ही, पर कदाचित् उससे भी अधिक लोकनिन्दा की लाज थी। जो घराना सारे शहर में सम्मानित हो, उसका यह पतन हृदयविदारक था। जब वह चारों तरफ से दौड़-धूप कर निराश हो गये तब एक दिन ज्ञानशकर से बोले, आज जरा ज्वालासिंह के पास चले जाते; तुम्हारे मित्र हैं, शायद कुछ रियायत करे।

ज्ञानशंकर ने विस्मित भाव से कहा, मेरा इस वक्त उनके पास जाना सर्वथा अनुचित है।

प्रभाशंकर—मैं जानता हूँ और इसी लिए अब तक तुमसे जिक्र नहीं किया। लेकिन अब इसके बिना काम नहीं चलता दिखायी देता। डिप्टी साहब अपने इजलास से बरी कर दें, फिर आगे हम देख लेंगे। वह चाहे तो सबूतो को निर्बल बना सकते हैं।

ज्ञान—पर आप इसकी कैसे आशा रखते है कि मेरे कहने से वह अपने ईमान का खून करने पर तैयार हो जायेंगे।

प्रभाशंकर ने आग्रह पूर्वक कहा, मित्रो के कहने सुनने का बडा असर होता है।

बूढ़ो की बातें बहुधा वर्तमान सभ्य प्रथा के प्रतिकूल होती है। युवकगण इन बातो पर अधीर हो उठते हैं। उन्हें बूढो का यह अज्ञान अक्षम्य-सा जान पड़ता है। ज्ञान-