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प्रेमाश्रम

कि रियासत की सारी आमदनी निर्माणकार्य के ही भेट हो जाय तो चिन्ता नहीं। 'मैं केवल सीर की आमदनी पर निर्वाह कर लूंगी।' लेकिन ज्ञानशंकर आमदनी के ऐसेऐसे विधान ढूंढ निकालते थे कि इतनी सब कुछ व्यय होने पर भी रियासत की वार्षिक आय मे जरा भी कमी न होती थी। बड़े-बड़े ग्रीमों मे पाँच-छह बाजार लगवा दिये। दो-तीन नालो पर पुल बनवा दिये। कई कई जगह पानी को रोकने के लिए चाँध बँधवा दिये। सिंचाई की कल मंगा कर किराये पर लगाने लगे। तेल निकालने का एक बड़ा कारखाना खोल दिया। इन आयोजनों से इलाके का नफा घटने के बदले कुछ और बढ़ गया। गायत्री तो उनकी कार्यपटुता की इतनी कायल हो गयी थी कि किसी विषय में जबान न खोलती।

ज्ञानशंकर के आहार-व्यवहार, रग-ढंग में भी अब विशेष अन्तर दीख पड़ता था। सिर पर बड़े-बड़े कैश थे, बूद की जगह प्राय खडाऊँ, कोट के बदले एक ढीला-ढाला चुटनियों से नीचे तक का गेरुवे रंग मे रँगा हुआ कुरता पहनते थे। यह पहनावा उनके सौम्य रूप पर बहुत खिलता था। उनके मुखारविन्द पर अब एक दिव्य ज्योति आभासित होती थी और बातों मे अनुपम माधुर्यपूर्ण सरलता थी। अब तर्क और न्याय से उन्हें रुचि न थी। इस तरह बातें करते मानों उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया है। यदि कोई उनसे भक्ति या प्रेम के विषय में शंक करता तो वह उसका उत्तर एक मार्मिक मुस्कान से देते थे, जो हजारों दलीलो से अधिक प्रभावोत्पादक होती थी।

उनके दीवानखाने में अब कुरसियों और मेजों के स्थान पर एक साफ-सुथरा फर्श था, जिस पर मसनद और गाव तकिये लगे हुए थे। सामने एक चन्दन के सुन्दर रत्नजटित सिंहासन पर कृष्ण की बालमूर्ति विराजमान थी। कमरे में नित अगर की बत्तियाँ जला करती थी। उसके अन्दर जाते ही सुगन्धि है चित्त प्रसन्न हो जाता था। उसकी स्वच्छता और सादगी हृदय को भक्ति-भाव से परिपूर्ण कर देती थी। वह श्रीवलभसम्प्रदाय के अनुयायी थे। फूलों से, ललित गान से, सुरम्य दृश्यों से, काव्यमय भाव से उन्हें विशेष रुचि हो गयी थी, जो आध्यात्मिक विकास के लक्षण हैं। सौन्दर्योपासना ही उनके धर्म का प्रधान तत्व था। इस समय वह एक सितारिये से सितार बजाना सीखते थे और सितार पर सूर के पदो को सुन कर मस्त हो जाते थे।

गायत्री पर इस प्रेम-भक्ति का रंग और भी गाया चढ़ गया था। वह मीराबाई के सदृश कृष्ण की मूर्ति को स्नान कराती, वस्त्राभूषणों से सजाती, उनके लिए नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोग बनाती और मूर्ति के सम्मुख अनुराग मग्न हो कर घंटो कीर्तन किया करती। आधी रात तक उनकी क्रीडाएँ और लीलाएँ सुनती और सुनाती। अब उसने पर्दा करना छोड़ दिया था। साधु-सन्तों के साथ बैठ कर उनकी प्रेम और ज्ञान की बातें सुना करती। लेकिन इस सत्संग से शान्ति मिलने के बदले उसका हृदय सदैव एक तृष्णा, एक चिरमय कल्पना से विकल रहता था। उसकी हृदय-वीणा एक अज्ञात आकाक्षा से गूंजती रहती थी। वह स्वय निश्चय न कर सकती थी कि मैं क्या चाहती हूँ। वास्तव में वह राधा और कृष्ण के प्रेम तत्व को समझने में असमर्थ थी। उसकी