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प्रेमाश्रम

खड़ी रहती थी। इनमे कितने ही महानुभाव सन्यासी थे। वह तिलकधारी पंडितों को तुच्छ समझते थे और मोटर पर बैठने के लिए अग्रसर हो जाते थे। एक सन्यासी महात्मा, जो विद्यारत्न की पदवी से अलकृत थे, मोटर न मिलने से इतनै अप्रसन्न हुए कि बहुत आरजू-मिन्नत करने पर भी फिटन पर न बैठे। सभा-भवन तक पैदल आये।

लेकिन जिस समारोह से सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ वह और किसी को नसीब न हुआ। जिस समय वह पाल मे पहुँचे, जलसा शुरू हो गया था और एक विद्वान् पडित जी विधवा-विवाह पर भाषण कर रहे थे। ऐसे निन्छ विषय पर गम्भीरता से विचार करना अनुपयुक्त समझ कर वह इसकी खूब हँसी उडा रहे थे और यथोचित हास्य और व्यग, धिक्कार और तिरस्कार से काम लेते थे।

'सज्जनों, यह कोई कल्पित घटना नही, मेरी आँखो देखी बात है। मेरे पड़ोस मे एक बाबू साहब रहते हैं। एक दिन वह अपनी माता से विधवा-विवाह की प्रशंसा कर रहे थे। माता जी चुपचाप सुनती जाती थी। जब बाबू साहब की वार्ता समाप्त हुई तो माता ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, बेटा, मेरी एक विनती है, उसे मानो। क्यों मेरा भी किसी से पाणिग्रहण नहीं करा देते? देश भर की विधवाएँ सोहागिन हो जायेंगी तो मुझसे क्यों कर रहा जायगा? श्रोताओं ने प्रसन्न होकर तालियाँ बजायी, कहकहो से पंडाल गूंज उठा।

इतने में सैयद ईजाद हुसैन ने पंडाल में प्रवेश किया। आगे-आगे चार लड़के एक कतार में थे, दो हिन्दू, दो मुसलमान। हिन्दू बालको की धोतियाँ और कुरते पीले थे, मुसलमान बालको के कुरते और पाजामे हरे। इनके पीछे चार लड़कियो की पक्ति थी—दो हिन्दू और दो मुसलमान। उनके पहनाव में भी वहीं अन्तर था। सभी के हाथो में रंगीन झडियों थी, जिनपर उज्ज्वल अक्षरों में अकित था-'इत्तहादी यतीमखाना।' इनके पीछे सैयद ईजाद हुसैन थे। गौर वर्ण, श्वेत केश, सिर पर हरा अमामा, काले अल्पाके की आवा, सुफेद तजेब की अचकन, सुलेमशाही जूते, सौम्य और प्रतिभा की प्रत्यक्ष मूर्त थे। उनके हाथ में भी वैसा ही झड़ी थी। उनके पीछे उनके सुपुत्र सैयद इर्शाद हुसेन थे-लम्बा कद, नाक पर सुनहरी ऐनक, अल्वर्ट फैशन की दाढी, तुर्की टोपी, नीच अचकन, सजीवता की प्रत्यक्ष मूर्ति मालूम होते थे। सबसे पीछे साजिन्दे थे। एक के हाथ में हारमोनियम था, दूसरे के हाथ मे तवले, शेष दो आदमी करताल लिये हुए थे। इन सबो की वर्दी एक ही तरह की थी और उनकी टोपियो पर 'अजुमन इत्तहाद' की मोहर लगी हुई थी। पंडाल में कई हजार आदमी जमा थे। सब के सब 'इत्तहाद के प्रचारको की ओर टकटकी बाँध कर देखने लगें। पंडित जी का रोचक व्याख्यान फीका पड़ गया। उन्होंने बहुत उछल-कूद की, अपनी सम्पूर्ण हास्यशक्ति व्यय कर दीं, अश्लील कवित्त सुनाये, एक भद्दी सी गजल भी बेसुरे राग से गायी, पर रंग न जमा। समस्त श्रोतागण 'इत्तहादियों' पर आसक्त हो रहे थे। ईजाद हुसेन एक शनि के साथ मंच पर जा पहुँचे। वहाँ कई सन्यासी, महात्मा, उपदेशक चाँदी की कुसियों पर बैठे हुए थे। सैयद साहब को सबने ईर्षापूर्ण नेत्रो से देखा और जगह

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