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प्रेमाश्रम

से न हटे। केवल भक्त ज्ञानशंकर ही एक व्यक्ति थे जिन्होंने उनका सहर्ष स्वागत किया और मंच पर उनके लिए एक कुर्सी रखवा दी। लड़के और साजिन्दे मंच के नीचे बैठ गये। उपदेशकगण मन ही मन ऐसे कुढ रहे थे, मानों हम समाज में कोई कौवा हो गया हो। दो-एक सहृदय महाशयों ने देवी जबान से फवतियाँ भी कसी, पर ईजाद हुसेन के तेवर जरा भी मैले न हुए। वह इस अवहेलना के लिए तैयार थे। उनके चेहरे से वह शान्तिपूर्ण दृढता झलक रही थी, जो कठिनाइयों की परवा नहीं करती और काँटों में भी राह निकाल लेती है।

पंडित जी ने अपनी रंग जमते न देखा तो अपनी वक्तृता समाप्त कर दी और जगह पर आ बैठे। श्रताओं ने समझा अब इत्तहादियों के राग सुनने में आयेंगे। सबने कुरसियाँ आगे खिसकायों और सावधान हो बैठे, किन्तु उपदेशक-समाज इसे कब पसन्द कर सकता था कि कोई मुसलमान उनसे बाजी ले जाय? एक सन्यासी महात्मा ने चट अपना व्याख्यान शुरू कर दिया। यह महाशय वेदान्त के पंडित और योगाभ्यासी थे। संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। वह सदैव संस्कृत में ही बोलते थे। उनके विषये में किंवदन्ती थी कि सस्कृत ही उनकी मातृ-भाषा हैं। उनकी वक्तृता को लोग उसी शौक से सुनते थे, जैसे चडूल का गाना सुनते है। किसी की भी समझ में कुछ ने आता था, पर उनकी विद्वत्ता और वाक्य प्रवाह को रोब लोगों पर छा जाता था। बह एक विचित्र जीव समझे जाते थे और यही उनकी बहुप्रियता का मन्त्र था। श्रोतागण कितने ही ऊबे हुए हों , उनके मंच पर आते ही उठनेवाले बैठ जाते थे, जानेवाले थम जाते थे। महफिल जम जाती थी। इसी घमंड पर इस वक्त उन्होंने अपना भाषण आरम्भ किया पर आज उनका जादू भी न चला। इत्तहादियों ने उनका रंग भी फीका कर दिया। उन्होने संस्कृत की झड़ी लगा दी, खूब तड़पे, खूब गरजे, पर यह भादो की नहीं, चैत की वर्षा थी। अन्त में वह भी थक कर बैठ रहे और अब किसी अन्य उपदेशक को खड़े होने का साहस न हुआ। इतहादियों ने मैदान मार लिया।

ज्ञानशकर ने खड़े हो कर कहा, अब इत्तहाद सस्था के संचालक सैयद ईजाद हुसेन अपनी अमृत वाणी सुनायेंगे। आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करे।

अभी भवन में सन्नाटा छा गया। लोग सँभल बैठे। ईजाद हुसेन ने हारमोनियम उठा कर मेज पर रखा, साजिन्दो ने साज निकाले, अनाथ बालकवृन्द वृत्ताकार बैठे। सैयद इर्शाद हुसेन ने इत्तहाद सभा की नियमावली का पुलिन्दा निकाला। एक क्षण में ईशवन्दना के मधुर स्वर पंडाल मे गूंजने लगे। बालको की ध्वनि में एक खास लोच होता है। उनका परस्पर स्वर में स्वर मिला कर गाना, उसपर साजों का मेल, एक समा छा गया-सारी सभा मुग्ध हो गयी।

राग बन्द हो गया और सैयद ईजाद हुसेन ने बोलना शुरू किया--प्यारे दोस्तो, आपको यह हैरत होगी कि हंसो में यह कौवा क्योंकर आ घुसा, औलिया की जमघट में यह भाँड कैसे पहुँचा? यह मेरी तकदीर की खूबी है। उलमा फरमाते हैं, जिस्म हादिम (अनित्य) है, रूह कदीम (नित्य) है। मेरा तजुर्वा बिलकुल वरअक्स (उल्टा)