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प्रेमाश्रम

का चेहरा फूल की तरह खिल उठा। उन्होंने लोगों को धन्यवाद देते हुए एक गजल गायी और आज की कार्यवाही समाप्त हुई। रात के दस बजे थे।

जब ईजाद हुसेन भोजन करके लेटे और खमीरे का रस-पान करने लगे तब उनके सुपुत्र ने पूछा, इतनी उम्मीद तो आपको भी न थी।

ईजाद---हर्गिज नहीं। मैंने ज्यादा से ज्यादा १००० रु० का अन्दाज किया था, मगर आज मालूम हुआ कि ये सब कितने अहमक होते है। इसी अपील पर किसी इस्लामी जलसे में मुश्किल से १०० रु० मिलते। इन बछिया के ताउओं की खूब तारीफ कीजिए। इमलीह की हद तक हो तो मुजायका नहीं, फिर इनसे जितना चाहे वसूल कर लीजिए।

इर्शाद-आपकी तकरीर लाजवाब थी।

ईजाद-उसी पर तो जिन्दगी का दामदार है। न किसी के नौकर, न गुलाम। बस, दुनिया में कामयाबी का नुसखा है तो वह शतरजवाजी है। आदमी जरा लस्सान (वाक्-चतुर) हो, जरा मर्दुमशनास हो और जरा गिरहवाज हो, बस उसकी चाँदी है। दौलत उसके घर की लौंडी है।

इर्शाद-सच फरमाइएगा अब्बी जान, क्या आपका कभी यह खयाल था कि यह सब दुनियासाजी है?

ईजाद--क्या मुझे मामूली आदमियों से भी गया-गुजरा समझते हो? यह दगाबाजी है, पर करूँ क्या? औलाद और खानदान की मुहब्बत अपनी नजात की फिकर से ज्यादा है।



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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ। रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश मे वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म सस्था को ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार और उसकी विरोधी तथा सहायक शक्तियों का बड़ी योग्यता से निरूपण किया गया था। सस्था की वर्तमान दशी और भावी लक्ष्य की बड़ी मार्मिक आलोचना की गयी थी। पत्रों मे उस वक्तृता को पढ़ कर लोग चकित हो जाते थे और जिन्होंने उसे अपने कानों से सुना वे उसका स्वर्गीय आनन्द कभी न भूलेगे। क्या वाक्यशैली थी, कितनी सरल, कितनी मधुर, कितनी प्रभावशाली, कितनी भावमयी! वक्तृता क्या थी—एक मनोहर गान था!

तीन दिन बीत चुके थे। ज्ञानशंकर अपने भव्य-भवन में समाचार-पत्रों का एक दफ्तर सामने रखे बैठे हुए थे। आजकल उनका यहीं काम था कि पत्रों में जहाँ कही इस जलसे की आलोचना हुई तुरंत काट कर रख लेते। गायत्री अब ज्ञानशंकर को दैवतुल्य समझती थी। उन्हीं की बदौलत आज समस्त देश में उसकी सुकीर्ति की।