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प्रेमाश्रम

धूम मची हुई थी। उनके इस अतुल उपकार का एक ही उपहार था और वह प्रेम पूर्ण श्रद्धा थी।

सन्ध्या हो गयी थी कि अकस्मात् ज्ञानशंकर पत्रों की एक पोट लिए हुए अन्दर गये और गायत्री से बोले, देखिए, रायसाहब ने यह नया शिगुफा छोड़ा।

गायत्री नै भौहें चढ़ा कर कहा, मैरे सामने उनका नाम न लीजिए। मैंने उनकी कितनी चिरौरी की थी कि एक दिन के लिए जलसे में अवश्य आइए, पर उन्होंने जरा भी परवाह न की। पत्र का उत्तर तक न दिया। बाप हैं तो क्या, मैं उनके हाथ भी अपना अपमान नहीं सह सकती।

ज्ञान मैंने तो समझा था, यह उनकी लापरवाही है, लेकिन इस पत्र से विदित होता है कि आजकल वह एक दूसरी ही बुन में हैं। शायद इसी कारण अवकाश न मिला हो।

गायत्री--क्या बात है, किसी अँगरेज से लड़ तो नहीं बैठे?

ज्ञान-नहीं, आजकल एक संगीत-सभा की तैयारी कर रहे हैं।

गायत्री---उनके यहाँ तो बारहो मास संगीत-सभा होती रहती है।

ज्ञान-नहीं, यह उत्सव बड़ी धूम से होगा। देश के समस्त गर्वयो के नाम निमत्रण-पत्र भेजे गये हैं। यूरोप से भी कोई जगद्विख्यात गायनाचार्यं बुलाये जा रहे हैं। रईसों और अधिकारियो को दावत दी गयी है। एक सप्ताह तक जलसा होगा। यहाँ के सगीत-शास्त्र और पद्धति में सुधार करना उनका उद्देश्य है।

गायत्री हमारी सगीत-शास्त्र ऋषियों का रचा हुआ है। उसमें कोई क्या सुधार करेंगा? इस भैरव और ध्रुपद के शब्द यशोदानन्दन की वशीं से निकलते थे। पहले कोई गा तो ले, सुधारना तो छोटा मुंह बड़ी बात है।

ज्ञान–राय साहब को कोई और चिन्ता तो है नहीं, एक न एक स्वाँग रचते रहते हैं, कर्ज बढ़ता जाता है, रियासत बोझ से दी जाती है, पर वह अपनी धुन में किसी की कब सुनते हैं! मेरा अनुमान है कि इस समय उनपर कोई ३॥ लाख देना है।

गायत्री--इतना धन कृष्ण भगवान की सेवा में खर्च करते तो परलोक बन जाता! चिट्ठियाँ सो खोलिए, जरूर कोई पत्र होगा।

ज्ञान–हाँ, देखिए यह लिफाफा उन्हीं का मालूम होता है। हाँ, उन्हीं का है। मुझे बुला रहे हैं और आपको भी बुला रहे हैं।

गायत्री-मैं जा चुकी। जब वह यहाँ आने में अपनी हैठी समझते हैं, तो मुझे क्या पड़ी है कि उनके जलसो-तमाशों में जाऊँ? हाँ, विद्या को चाहे पहुँचा दीजिए, मगर शर्त यह है कि आप दो दिन से ज्यादा वहाँ न ठहरें।

ज्ञान–इसके विषय में सोच कर निश्चय करूंगा। यह दो पत्र वरहल और आमगाँव के कारिंदो के हैं। दोनों लिखते हैं कि असामी सभा का चन्दा देने से इन्कार करते हैं।

गायत्री की त्यौरियाँ बदल गयी। प्रेम की देवी क्रोध की मूर्ति बन गयी। बोली,