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प्रेमाश्रम

क्या देहात में भी वह हवा फैलने लगी? कारिन्दो को लिख दीजिए कि इन पाजियों के घर में आग लगवा दे और उन्हे. कोड़ो से पिटवायै। उनका यह दिल कि मेरी आज्ञा का अनादर करें। देवकीनन्दन, तुम इन नर-पिशाचो को क्षमा करो। आप आज ही वहाँ आदमी रवाना करे! मैं यह अवज्ञा नहीं सह सकती। यह सब के सब कृतघ्न है। किसी दूसरे राज में होते तो आटे-दाल का भाव खुलता। मैं उनके साथ उतनी रिआयत करती हूँ, उनकी मदद के लिए तैयार रहती हूँ, उनके लिए नुकसान उठाती हूँ। और उसका यह फल।

ज्ञान---यह मुन्शी रामसनेही का पत्र है। लिखते हैं, ठाकुरद्वारे का काम तीन दिन से बन्द है। बेगारो को कितनी ताकीद की जाती है, मगर काम पर नहीं आते।

गायत्री-उन्हें मजूरी दी जाती है न?

ज्ञान जी हाँ, लेकिन जमींदारी की दर से दी जाती है। जमींदारी शरह दो आने है, आम शरह छह आने है।

गायत्री—आप उचित समझे तो रामसनेही को लिख दीजिए कि चार आने के हिसाब से मंजूरी दी जाय।

ज्ञान–लिख तो दें, वास्तव में दो आने में एक पेट भी नहीं भरता, लेकिन इ मूर्ख, उजड्ड गवारों पर दया भी की जाय तो वह समझते है कि दब गये। कल को छह आने माँगने लगेंगे और फिर बात भी न सुनेगे।

गायत्री–फिर लिख दीजिए कि बॅगारो को जबरदस्ती पकड़वा ले। अगर न आयें तो उन्हें गाँव से निकाल दीजिए। हम स्वयं दया-भाव से उनके साथ चाहे जो सलूक करें मगर यह कदापि नहीं हो सकता कि कोई असामी मेरे सामने हेकड़ी जताये। अपना रोब और भय बनाये रखना चाहिए।

ज्ञान--यह पत्र अमेलिया के बाजार से आया है। ठेकेदार लिखता है कि लोग गौले के भीतर गाडियाँ नहीं लाते। बाहर ही पेड़ो के नीचे अपना सौदा बेचते हैं। कहते हैं, हमारा जहाँ जी चाहेगा बैठेंगे। ऐसी दशा में ठीको रद्द कर दिया जाये, अन्यथा मुझे बड़ी हानि होगी।

गायत्री---बाजार के बाहर भी तो मेरी ही जमीन है, वहाँ किसी को दूकान रखने का क्या अधिकार है।

ज्ञान–कुछ नहीं, बदमाशी है। बाजारों में रुपये पीछे एक पैसा बयाई देनी पड़ती है, तौल ठीक ठीक होती है, कुछ धर्मार्थ कटौती देनी पड़ती है, बाहर मनमाना राज है।

गायत्री यह क्या बात है कि जो काम जनता के सुभीते और आराम के लिए। किये जाते है, उनका भी लोग विरोध करते है।

ज्ञान कुछ नहीं, यह मानव-प्रकृति है। मनुष्य को स्वभावत दबाव से, रोक-थाम से, चाहे वह उसी के उपकार के लिए क्यो न हो, चिढ़ होती है। किसान अपने मूर्ख पुरोहित के पैर धो-धो पीयेगा, लेकिन कारिन्दों को, चाहे वह विद्वान आह्मण ही क्यों न हो, सलाम करने में भी उसे संकोच होता है। यो चाहे वह दिन भर धूप में खड़ा