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प्रेमाश्रम

रहे, लेकिन कारिन्दा था चपरासी को देख कर चारपाई से उठना उसे असह्य होता हैं। वह आठौ पहर अपनी दीनता और विवशता के भार से दवा रहना नहीं चाहता। अपनी खुशी से नीम की पत्तियों चबायेगा, लेकिन जबर्दस्ती दूध और शर्बत भी न पीयेगा। यह जानते हुए भी हम उनपर मस्ती करने के लिए बाध्य हैं।

इतने में मायाशंकर एक पीताम्बर ओढे हुए ऊपर से उतरा। अभी उसकी उम्र चौदह वर्ष से अधिक न थी, किन्तु मुख पर एक विलक्षण गम्भीरता और विचारशीलता झलक रही थी जो इस अवस्था में बहुत कम देखने में आती है। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहाँ चले मुन्नू?

माया ने तीव्र नेत्रों से देखते हुए कहा, घाट की तरफ संध्या करने जाता हूँ।

ज्ञान-आज सर्दी बहुत है। यही बाग में क्यों नहीं कर लेते?

माया—वहाँ एकान्त मे चित्त खूब एकाग्र हो जाता है।

वह चला गया तो ज्ञानशंकर ने कहा, इस लड़के का स्वभाव विचित्र है। समझ में ही नहीं आता। सवारियाँ सब तैयार हैं, पर पैदल ही जायगी। किसी को साथ भी नहीं लेता है।

गायत्री-महरियाँ कहती है, अपना बिछावन तक किसी को नहीं छूने देते। वह वैचारियाँ इनका मुँह जौहीं करती है कि कोई काम करने को कहे, पर किसी से कुछ मतलब ही नहीं।

ज्ञान--इस उम्र में कभी-कभी यह सनक सवार हो जाया करती है। संसार का कुछ ज्ञान तो होता नहीं। पुस्तकों में जिन नियमों की सराहना की गयी है, उनके पालन करने को प्रस्तुत हो जाता है। लेकिन मुझे तो यह कुछ मन्दबुद्धि सा जान पड़ता है। इतना बड़ा हुआ, पैसे की कदर ही नहीं जानता। अभी १०० रु० दे दीजिए तो शाम तक पास कौड़ी न रहेगी। न जाने कहाँ उड़ा देता है, किन्तु इसके साथ ही माँगता कभी नहीं। जब तक खुद न कीजिए, अपनी जवान से कभी न कहेगा।

गायत्री-मेरी समझ मे तो यह पूर्व जन्म में कोई सन्यासी रहे होगे।

ज्ञानशंकर ने आज की गाड़ी से बनारस जा कर विद्या को साथ लेते हुए लखनऊ जाने का निश्चय किया। गायत्री बहुत कने-सुनने पर भी राजी न हुई।



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राय कमलानन्द को देखे हुए हमे लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिह्न नही दिखाई देता। बल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही हैं। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार, पोलो और टेनिस, राग और रंग में व्यतीत होता है। योगाभ्यास भी करते जाते हैं। धन पर वह कभी लोलुप नही हुए और अब भी उमका आदर नहीं करते। जिस काम की धुन हुई उसे करके छोड़ते हैं। इसकी जग भी चिन्ता नहीं करते कि रुपये कहाँ से आयेंगे। वह अब भी सलाहकारी सभा के