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प्रेमाश्रम

मेम्बर है। इस बीच में दो बार चुनाव हुआ और दोनों बार वही बहुमत से चुने गये। यद्यपि किसानों और मध्यश्रेणी के मनुष्यों को भी वोट देने का अधिकार मिल गया था, तथापि राय साहव के मुकाबले में कौन जीत सकता था? किसानों के वोट उनके और उनके अन्य भाइयों के हाथो में थे और मध्य श्रेणी के लोगो को जातीय संस्थाओं मे चन्दे देकर वशीभूत कर लेना कठिन न था।

राय साहब इतने दिनों तक मेम्बर बने रहें, पर उन्हें इस बात का अभिमान थी कि मैंने अपनी ओर से कौंसिल में कभी कोई प्रस्ताव न किया। वह कहते, मुझे खुशीमदी टट्ट, कहने में अगर किसी को आनन्द मिलता है तो कहे, मुझे देश और जानि का द्रोही कहने से अगर किसी का पेट भरता है तो मुझे कोई शिकायत नहीं है, पर मैं अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता। अगर रस्सी तुड़ा कर मैं जंगल मैं अवाध्य फिर सकूँ तो मैं आज ही बँटा उखाड़ फेकूँ। लेकिन जब जानता हूँ कि रस्सी तुड़ाने पर भी मैं बाड़े से बाहर नहीं जा सकता, बल्कि ऊपर से और डंडे पड़ेंगे तो फिर खुटै पर चुपचाप खड़ा क्यों रहूँ? और कुछ नहीं तो मालिक की कृपा-दृष्टि तो रहेगी। जब राज-सत्ता अधिकारियों के हाथ में है, हमारे असहयोग और असम्मति से उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता तो इसकी क्या जरूरत है कि हम व्यर्य अधिकारियों पर टीकाटिप्पणी करने बैठे और उनकी आँखो मे खटके? हम काठ के पुतले हैं, तमाशे दिखाने के लिए खड़े किये गये है, इसलिए हमे डोरी के इशारे पर नाचना चाहिए। यह हमारी खामखयाली है कि हम अपने को राष्ट्र का प्रतिनिधि समझते हैं। जाति हम जैसो को, जिसका अस्तित्व ही उसके रक्त पर अवलम्बित है, कभी अपनी प्रतिनिधि न बनायेगी। जिस दिन जाति में अपना हानि-लाभ समझने की शक्ति होगी, हम और आप खेतो में कुदाली चलाते नजर आयेंगे। हमारा प्रतिनिधित्व सम्पूर्णतः हमारी स्वार्थपरता और सम्मान लिप्सा पर निर्भर है। हम जाति के हितैषी नहीं है, हम उसे केवल स्वार्थ-सिद्धि का यन्त्र बनाये हुए हैं। हम लोग अपने वेतन की तुलना अँगरेजो से करते है। क्यों? हमें तो सोचना चाहिए कि ये रुपये हमारी मुट्ठी में न आ कर यदि जाति की उन्नति और उपकार में खर्च हो तो अच्छा है। अँगरेज अगर दोनों हाथो से धन बटोरते हैं तो बटौरने दीजिए। वे इसी उद्देश्य से इस देश में आये है। उन्हें हमारे जाति-प्रेम का दावा नहीं है। हम तो जाति-भक्ति की हाँक लगाते हुए भी देश का गला घोट देने है। हम अपने जातीय व्यवसाय के अघ.पतन का रोना रोते हैं। मैं कहता हूँ आपके हाथ यह दशा और भी असाध्य हो जायगी। हम अगणित मिले खोलेंगे, बड़ी संस्था में कारखाने कायम करेगें, परिणाम क्या होगा? हमारे देहात वीरान हो जायेगे, हमारे कृषक कारखानों के मजदूर बन जायेंगे, राष्ट्र का सत्यानाश हो जायेगा। आप इसी को जातीय उन्नति की चरम सीमा समझते हैं। मेरी समझ मे यह जातीयता का घोर अघ पतन हैं। जाति की जो कुछ दुर्गत हुई है हमारे हाथों हुई हैं। हम जमींदार हैं, साहूकार है, वकील है, सौदागर है, डाक्टर है, पदाधिकारी है, इनमे कौन जाति की सच्ची वकालत करने का दावा कर सकता है? आप जाति के साथ