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प्रेमाश्रम

बड़ी भलाई करते हैं तो कौसिल में अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव पेश करा देते है। अगर आप जाति के सच्चे नेता होते तो यह निरकुशता कभी न करते। कोई अपनी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग भी नहीं चाहता। हममें तो कितने ही महोदय ने बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त की हैं। पर उस शिक्षा ने हममें सिवा विलास-लालसा और सम्मान प्रेम, स्वार्थ-सिद्धि और अहम्मन्यता के और कौन सा सुधार कर दिया। हम अपने घमड में अपने को जाति का अत्यावश्यक अंग समझते है, पर वस्तुत हम कीट-पतंग से भी गये बीते है। जाति-सेवा करने के लिए दो हजार मासिक, मोटर, बिजली, पखे, फिटन, नौकर या चाकर की क्या जरूरत है? आप रूखी रोटियाँ खा कर जाति की सेवा इससे कही उत्तम रीति से कर सकते है। आप कहेगे-वाह, हमने परिश्रम से विद्योपार्जन किया है इसीलिए। तो जब आपने अपने कायिक सुखभोग के लिए इतना अध्यबसाय किया है तब जाति पर इसका क्या एहसान? आप किस मुंह से जाति के नेतृत्व की दावा करते हैं? आप मिले खोलते है तो समझते हैं हमने आति की बड़ी सेवा की, पर यथार्थ में आपने दस-बीस आदमियों को बनबास दे दिया। आपने उनके नैतिक और सामाजिक पतन का सामान पैदा कर दिया। हाँ, आपने और आपके साझेदारों ने ४५ रु० प्रति सैकडे लाभ अवश्य उठाया। तो भाई, जब तक यह घीगा-धीगी चलती है चलने दो। न तुम मुझे बुरा कहो, न मैं तुम्हे बुरा कहूँ। हम और आप, नरम और गरम दोनो ही जाति के शत्रु है। अन्तर यह है कि मैं अपने को शत्रु समझता हैं और आप अहंकार के मद में अपने को उसका मित्र समझते हैं।

इन तर्को को सुन कर लोग उन्हे नक्की और झक्की कते थे। अवस्था के साथ रायसाहब का संगीत-प्रेम और भी बढ़ता जाता था। अधिकारियों से मुलाकात का उन्हें अब इतना व्यसन नहीं था। जहाँ किसी उस्ताद की खबर पाते, तुरन्त बुलाते और यथायोग्य सम्मान करते। संगीत की वर्तमान अभिरुचि को देख कर उन्हें भय होता था कि अगर कुछ दिनों यही दशी रही तो इसका स्वरूप ही मिट जायगा, देश और भैरव की तमीज भी किसी को न होगी। वह संगीत-कला को जाति की सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति समझते थे। उसकी अवनति उनकी समझ में जातीय पतन का निकृष्टतम स्वरूप था । व्यय का अनुमान चार लाख किया गया था। राय साहब ने किसी से सहायता माँगना उचित न समझा था, लेकिन कई रईसो ने स्वय २-२ लाख के वचन दिये थे। तब भी राय साहब पर २-२ लाख का भार पड़ना सिद्ध था। यूरोप से छह नामी सगीतज्ञ आ गये थे—दो जर्मनी से, दो इटली से, एक मास और एक इंगलिस्तान से। मैसूर, ग्वालियर, ढाका, जयपुर, काश्मीर के उस्तादों को निमन्त्रण-पत्र भेज दिये गये थे। राय साहब को प्राइवेट सेकेटरी सारे दिन पत्र-व्यवहार में व्यस्त रहता था, तिस पर चिट्ठियों की इतनी कसरत हो जाती थी कि बहुधा राय साहब को स्वयं जवाब लिखने पड़ते थे। इसी काम को निबटाने के लिए उन्होने ज्ञानशंकर को बुलाया और वह आज ही विद्या के साथ आ गये थे। राय साहब ने गायत्री के न आने पर बहुत खेद प्रकट किया और बोले, वह इसी लिए नहीं आयी है कि मैं सनातनधर्म सभा के उत्सव में न आ सका था।