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प्रेमाश्रम

सम्पत्ति मायाशंकर के लिए काफी नहीं है। तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति भी २ लाख से कम की नहीं है। अगर इसे काफी नही समझते तो गायत्री की जायदाद पर भी निगाह रखो, इसे मैं बुरा नहीं कहता। अपने सुप्रबन्ध से, कार्य कुशलता से, किफायत से, हितेच्छा से उसके कृपा-पात्र बन जाओ, न कि उसके भोलेपन, उसकी सरलता और मिथ्या भक्ति को अपनी कूटनीति का लक्ष्य बना और प्रेम का स्वाँग भर कर उसके जीवन-रन पर हाथ बढाओ।

इतने में प्राइवेट सेक्रेटरी साहब आये। राय साहब उनकी ओर आकृष्ट हो गयें। ज्ञानशंकर रो रहे थे। भेद खुल जाने का शोक था, चिरसचित अभिलाषाओं के विनष्ट हो जाने का दुख, कुछ ग्लानि, कुछ अपनी दुर्जनता का खेद, कुछ निर्बल क्रोध। तर्कना शक्ति इतने आघातों को प्रतिरोध न कर सकती थी।

ज्ञानशंकर उठ कर बगल में एक बैच पर जा बैठे। माघ का महीना था और सध्या का समय। लेकिन उन्हें इस समय जरा भी सरदी न लगती थी। समस्त शरीर अतरस्थ चिन्ता दाह से खौल रहा था। राय साहब का उपदेश सम्पूर्णतः विस्मृत हो गया था। केवल यह चिंता थी कि गिरती हुई दीवार को क्यों कर थामे, मरती हुई अभिलाषाओं को क्यों कर सँभाले? यह महाशय कहते हैं कि मैं गायत्री से कुछ न कहूँगा, लेकिन इनको एतभार ही क्या इन्होंने जहाँ उनके कान भरे वह मेरी सूरत से घृणा करने लगेगी। गौरवशील स्त्री है, उसे अपने सतीत्व पर घमंड है। यद्यपि उसे मुझसे प्रेम है किन्तु अभी तक उसका आधार धर्म पर हैं, मनोवेगों पर नहीं। उसकी स्थिति का क्या भरोसा? दुष्ट अपनी जायदाद का सर्वनाश तो किये ही डालता है, उधर का द्वार भी बन्द किये देता है कि मुझे कहीं निकलने का मार्ग ही न मिले। मैं इतनी निराशाओं का भार नहीं सह सकता। इस जीवन में अब कोई आनन्द नहीं रहा। जब अभिलाषाओं का ही अन्त हुआ जाता है तब जी कर ही क्या करना हैं? हाँ। क्या सोचता था और क्या हो रहा हैं?

राय साहब तो शाम को क्लब चले गये और ज्ञानशंकर उसी निर्जन स्थान पर बैठे हुए जीवन और मृत्यु का निर्णय करते रहे। उनकी दशा उस व्यापारी की सी थी जिनका सब कुछ जलमग्न हो गया हो, बाउस विद्यार्थी की सी थी जो वर्षों के कठिन श्रम के बाद परीक्षा में गिर गया हो। जब बाग में खूब औस पड़ने लगी तो वह उठ कर कमरे में चले गये। फिर उन्हीं चिन्ताओं ने आ घेरा। जीवन में अब निराशा और अपमान के सिवा और कुछ नहीं रहा। ठोकरें खाता रहूंगा। जीवन का अन्त ही अब मेरे डूबते हुए बेड़े को पार लगा सकता है। राय साहब इतने नीच नहीं है कि मरने पर भी मुझे बदनाम करें। उन्होने बहुत सच कहा था कि मनुष्य अपने भाग्य का खिलौना है। मैं इस दशा में हैं कि मृत्यु ही मेरे सारे दुखों का एकमात्र उपाय है। सामान्यतः लोग यही समझेंगे कि मैंने संसार से विरक्त हो कर प्राण त्याग दिये, माया मोह के वन्धन से मुक्त हो गया। ऐसी मुक्त आत्मा के लिए यह अन्वकारमय जगत अनुकूल न था। विद्या की निगाह में मेरा आदर कई गुना बढ़ जायगा और गायत्री तो मुझे