पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/२६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७१
प्रेमाश्रम


कृष्ण का अवतार समझने लगेगी। बहुत सम्भव है कि मेरी आत्मा को प्रसन्न करने के लिए वह माया को गोद ले ले। चाचा और भाई दोनों मुझपर कुपित है। मौत उनको भी नर्म कर देगी। और मुश्किल ही क्या है? कल गोमती स्नान करने जाऊँ। एक सीढ़ी भी नीचे उतर गया तो काम तमाम है। बीस हजार जो मैं नगद छोड़े जाता हूँ, विद्या के निर्वाह के लिए काफी हैं। लखनपुर की आमदनी अलग।

यह सोचते-सोचते ज्ञानशंकर इतने शोकातुर हुए कि जोर-जोर से सिसकियाँ भर कर रोने लगे। यही जीवन का फल है? इसी लिए दुनियाँ भर के मनसूबे बाँधे थे? यह दुष्ट कमलानन्द मेरी गर्दन पर छुरी फेर रहा है। यहीं निर्दय मेरी जान का गाहक हो रहा है।

इतने में विद्यावती आ गयी और बोली, आज दादा जी से तुमसे कुछ तकरार हो गयी क्या? मुख्तार साहब कहते थे कि राय साहब बडे क्रोध में थे। तुम नाहक उनके बीच में बोला करते हो। वह जो कुछ करें करने दो। अम्मा समझाते-समझाते मर गयी, इन्होंने कभी रत्ती भर परवाह न की। अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं।

ज्ञान—मैंने तो केवल इतना कहा कि आप को व्यर्थ २-३ लाख रुपया फेंक देना उचित नहीं है। बस इतनी सी बात पर बिगड़ गये।

विद्या—यह तो उनका स्वभाव ही है। जहाँ उनकी बात किसी ने काटी और वह आग हुए। बुरा मुझे भी लग रहा हैं, पर मुंह खोलते काँपती हूँ।

ज्ञान—मुझे इनकी जायदाद की परवाह नहीं है। मैंने वृन्दावनविहारी का आश्रय लिया है, अब किसी बात की अभिलाषा नहीं, लेकिन यह अनर्थ नहीं देखा जाता।

विद्या चली गयीं। थोड़ी देर में महाराज ने भोजन की थाली ला कर रख दी। लेकिन ज्ञानशंकर को कुछ खाने की इच्छा न हुई। थोडा सा दूध पी लिया और फिर विचारों में मुग्न हुए—स्त्रियों के विचार कितने सकुचित होते हैं। तभी तो इन्हें सन्तोष हो जाता है। वह समझती है, आदमी को चैन से भोजन वस्त्र मिल जाँय, गहने-जेवर बनते जाये, संताने होती जायें, बस और क्या चाहिए। मानो मानव-जीवन भी अन्य जीववारियो की भाँति केवल स्वाभाविक आवश्यकताएँ पूरी करने के ही लिए है। विद्या को कितना सन्तोष है! लोग स्त्रियों के इस गुण को बड़ी प्रशंसा करते है। मेरा विचार तो यह है कि धैर्य और संतोष उनकी बुद्धि-हीनता का प्रमाण है। उनमें इतना बुद्धि सामर्थ ही नहीं होता कि अवस्था और स्थिति का यथार्थ अनुमान कर सकें। राय साहब की फूँक ताप विद्या को भी अखरती हैं, लेकिन कुछ बोलती नहीं, जरा भी चिन्तित नहीं हैं। यह नहीं समझती कि वह सरासर अपनी ही हानि, अपना ही सर्वनाश है। दया ने कैसा पलटा खाया है। अगर मेरे मनसूवे सफल हो जाते तो दो-चार वर्ष में मैं ३ लाख रुपये वार्षिक का आदमी होता। दस-पन्द्रह वर्षों में अतुल्य संपत्ति का स्वामी होता लेकिन मन की मिठाई खाने से क्या होता है?

ज्ञानशंकर बड़ी गम्भीर प्रकृति के मनुष्य थे। उनमे शुद्ध संकल्प की भी कमी न थी। मौकों मे उनके पैर न उखड़ते थे, कठिनाइयो मे उनकी हिम्मत न छूटती थीं।