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प्रेमाश्रम

गोरखपुर में उनपर चारो ओर से दाँव-पेच होते रहे लेकिन उन्होंने कभी परवाह न की। लेकिन उनकी अबिचलता वह थी जो परिस्थित-ज्ञान-शून्यता की हद तक जा पड़ती है। वह उन जुआरियों में न थे, जो अपना सब कुछ एक दाँव पर हार कर अकड़ते हुए चलते है। छोटी-छोटी हा का, छोटी-छोटी असफलताओं का असर उन पर न होता था, लेकिन उन मन्तव्यों का नष्ट भ्रष्ट हो जाना, जिन पर जीवन उत्सर्ग कर दिया गया हो, धैर्य को भी विचलित, अस्थिर कर लेता है, और फिर यहाँ केवल नैराश्य आर शौक न था। मेरे छल कपट का पर्दा खुल गया! मेरी भक्ति और धर्मनिष्ठा की, मैरे वैराग्य और त्याग की, मेरे उच्चादर्शी की, मेरे पवित्र आचरण की कलई खुल गयी! संसार अब मुझे यथार्थ रूप में देखेगा। अब तक मैंने अपनी तर्कनाओं से, अपनी प्रगल्भता से, अपनी कुलुपता को छिपाया। अब वह बात कहाँ?

ज्ञानशंकर को नींद न आयी। जरा आँखे झपक जाती तो भयावह स्वप्न दिखाय देने लगते। कभी देखते, मैं गोमती में डूब गया हूँ और मेरा शव चिता पर जलाया जा रहा है। कभी नजर आता, मेरा विशाल भवन् विध्वस हो गया है और मायाशंकर उसके भग्नावेश पर बैठा हुआ रो रहा है। एक बार ऐसा जान पडा किं गायत्री मेरी ओर कोप-दृष्टि से देख कर कह रहीं हैं, तुम मक्कार हो, आँखो से दूर हो जाओ।

प्रात काल ज्ञानशंकर उठे तो चित्त बहुत खिन्न था। ऐसे अलसाये हुए थे, मानो कोई मजिल तय करके आये हो। उन्होनें किसी से कुछ बातचीत न की। घोती उठायी और पैदल गोमती की ओर चले। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था, लेकिन तमाखूवालों की दुकाने खुल गयी थी। ज्ञानशंकर ने सोचा, क्या तमाखू ही जीवन की मुख्य वस्तु हैं कि सबसे पहले इनकी दूकान खुलती है? जरा देर मे मलाई-भक्खन की ध्वनि कानों मे आयी। दुष्ट कितना जीभ ऐंठ कर बोलता है। समझता होगा कि यह कर्णकटु शब्द रुचिवर्द्धक होगे। भला गाता तो एक बात भी थी। अच्छा, धाय गरम भी आ पहुँची। गर्म तो अवश्य ही होगी, बिना फूके पियो तो जीभ जल जाय, मगर स्वाद वही गर्म पानी की। यह कौन महाशय घोड़ा दौडाये चले आते है। घौडा ठोकर ले तो साहब बहादुर की हड्डि चूर हो जायँ।

वह गोमती के तट पर पहुँचे तो भक्त जनो की भीड़ देखी। श्यामल जलधारा पर श्यामल कुहिर घटा छायी हुई थी। सूर्य की सुनहरी किरणें इस श्याम घटा में प्रविष्ट होने के लिए उत्सुक थी। दो-चार नौकाएँ पानी में खड़ी काँप रही थी।

ज्ञानशंकर ने धोती चौकी पर रख दी और पानी में घुसे तो सहसा उनकी आँखे सजल ही गयी। कमर तक पानी में गये, आगे बढ़ने का साहस न हुआ। अपमान और नैराश्य के जिन भावों ने उनकी प्रेरणाओं को उत्तेजित कर रखा था वह अकस्मात् शिथिल पड़ गये। कितने रण-मद के मतवाले रणक्षेत्र मे आ कर पीठ फेर लेते है। मृत्यु दूर से इतनी विकराल नहीं दीख पड़ती, जितनी सम्मुख आ कर। सिंह कितना भयंकर जीव है, इसका अनुमान उसे सामने देख कर हो सकता है। पहाड़ो को दूर से देखो तो ऊँची मेड़ के सदृश देख पड़ते है, उनपर चढ़ना आसान मालूम होता है, किन्तु