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प्रेमाश्रम

का निश्चय किया था। अपने प्राण दे कर इस संकट से निवृत्त होना चाहते थे। अब उन्होंने रायसाहब को ही अपनी आकांक्षाओं की बेदी पर बलिदान करने की ठानी। ससार इसे हिंसा कहेगा, उसकी दृष्टि में यह घोर पाप है-सर्वथा अक्षम्य, अमानुषीय। लेकिन दार्शनिक दृष्टि से देखिए तो इसमें पाप को सम्पर्क तक नही है। रायसाहब के मरने से किसी को क्या हानि होगी? उनके बाल-बच्चे नहीं हैं जो अनाथ हो जायेगे। वह कोई ऐसा महान कार्य नहीं कर रहे है जो उनके मर जाने से अधूरा रह जायगा, उनकी जायदाद का भी ह्रास नहीं होता; बल्कि एक ऐसी व्यवस्था का आरोपण हुआ जाता है जिससे वह सुरक्षित रहेगी। समाज और अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार तो इसे हत्या कह ही नहीं सकते। नैतिक दृष्टि से भी इसपर कोई आपत्ति नही हो सकती। केवल धार्मिक दृष्टि से इसे पाप कहा जा सकता है। और लौकिक रीति के अनुसार तो यह काम केवल सराहनीय ही नही परमावश्यक है। यह जीवन संग्राम है। इस क्षेत्र में विवेक, धर्म और नीति का गुजर नही। यह कोई धर्मयुद्ध नहीं है। यहाँ कपट, दगा, फरेब सब कुछ उपयुक्त हैं, अगर उससे अपना स्वार्थ सिद्ध होता है। यहाँ छापा मारना, आड़ से शस्त्र चलाना विजय प्राप्ति के साधन हैं। यहाँ औचित्य अनौचित्य का निर्णय हमारी सफलता के अधीन है। अगर जीत गये तो सारे घोखे और मुगालते सुअवसर के नाम से पुकारे जाते हैं, हमारी कार्य कुशलता की प्रशंसा होती है। हारे तो उन्हें पाप कहा जाता है। बस, इस पत्थर को मार्ग से हुदा हैं और मेरा रास्ता साफ है।

ज्ञानशंकर ने नाना प्रकार के तर्कों से इन मनोगत विचारों को उसी तरह प्रोत्साहित किया , जैसे कोई कबूतरबाज बहके हुए कबूतरों को दाने बिखेर-बिखेर कर अपनी छतरी पर बुलाता हैं। अन्त में उनकी हिंसात्मक प्रेरणा दृढ हो गयी। जगत हिंसा के नाम से काँपता है, हिंसक पर बिना समझे दूझे चारो ओर से वार होने लगते हैं। वह दुरात्मा है, दंडनीय है, उसका मुंह देखना भी पाप है। लेकिन यह अनन्त संसार केवल मूर्खों की बस्ती हैं। इसके विचारो का, इसके भावों का सम्मान करना काँटो पर चलना है। यहाँ कोई नियम नहीं, कोई सिद्धान्त नहीं , कोई न्याय नहीं। इसकी जवान बन्द करने का बस एक ही उपाय है। इसकी आँखो पर परदा डाल दो और वह तुमसे जरा भी एतराज न करेगी। इतना ही नहीं, तुम समाज के सम्मान के अविकारी हो जाओगे।

घर पहुँच कर ज्ञानशंकर तुरन्त राय साहब के पुस्तकालय में गये और अँगरेजी का वृहत् रसायन कोष निकाल कर विषाक्त पदार्थों के गुण और प्रभाव का अन्वेषण करने लगे।



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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात ने की। राय साहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगा कर उसपर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी