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प्रेमाश्रम

चाची के कठोर वाक्य उनके हृदय को मथ रहे थे। बोले, तो मैं आप लोगों के साथ रह कर कौन सा स्वर्ग का सुख भोग रहा हूँ?

बड़ी बहु-जो अभिलाषा मन में हो वह निकाल डालो। जब अपनापन ही नहीं, तो एक घर में रहने में थोड़े ही एक हो जायेंगे!

ज्ञान---आप लोगों की यही इच्छा है तो यही नहीं मुझे निकाल दीजिए।

बड़ी बहु — वह हमारी इच्छा है? आज महीनों से तुम्हारा रंग देख रही हूँ। ईश्वर ने आँखें दी हैं, धूप में बाल नहीं सफेद किये हैं। हम लोग तुम्हारी आँख में कांटे की तरह खटकते हैं। तुम समझते हो यह लोग हमारा सर्वस्व खाए जाते हैं। जब तुम्हारे मन में इतना कमीनापन आ गया तो फिर—

प्रभाशंकर ने ठंडी साँस ले कर कहा, या ईश्वर, मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती। बड़ी बहु ने पति को कुपित नेत्रों से देख कर कहा, तुम्हें, यह बहुत प्यारे हैं, तो जा कर इनकी जूतियाँ सीधी करो। जो आदमी मुसीबत में साथ न दे, वह दुश्मन है, उससे दूर रहना ही अच्छा है।

ज्ञान — यह धमका किसे देती हो? कल के बदले आज ही हिस्सा बाँट कर लो!

बड़ी बहू-क्या तुम समझने हो कि हम तुम्हारा दिया खाते है?

ज्ञान-उन बातों का प्रयोजन ही क्या है?

बड़ी बहु-नहीं, तुम्हें यही घमंड है।

ज्ञान-अगर यही घमंड है तो क्या अन्याय है। जितना आपका खर्च है उसना मेरा कभी नहीं है।

बड़ी बहु ने पति की ओर देख कर व्यंग भाव में कहा कुछ सुन रहे हो सपूत की बातें! बोलते क्यों नहीं? क्या मुंह में दही जमा हुआ है। बाप हजारो रुपये माल साधु-भिखारियों को खिला दिया करते थे। मरते दम तक पाळकी के बाहर कहार दरवाजे से नहीं टले। इन्हें आज हमारी रोटियाँ अखर रही है। लाला, हमारा बस मानो कि आज रईसों की तरह चैन कर रहे हो, नही तो मुंह में मक्खियाँ आती-जाती।

प्रभासंकर यह बातें न सुन सके। उठ कर बाहर चले गये। बड़ी बहू मोर्चे पर अकेले न ठहर सकी, घर में चली गयी। लेकिन ज्ञानशंकर वही बैठे रहे। उनके हृदय में एक दाह सी हो रही थी। इतनी निष्ठुरता। इतनी कृतघ्नता। मैं कमीना हूँ, मैं दुश्मन हूँ, मेरी सूरत देखना पाप है। जिन्दगी भर हमको नोचा-खसोटा, आज यह बातें! यह घमंड! देखता हूँ यह घमंड कब तक रहता है? इसे तोड़ न दिया तो कहना! ये लोग सोचते होंगे, मालिक तो हम है, कुंजियां तो हमारे पास है, इसे जो देंगे, वह ले लगा। एक-एक चीज आधा कर लूँगा। बुढ़िया के पास जरूर रूपये हैं। पिता जी ने सब कुछ इन्हीं लोगों पर छोड़ दिया था। इसने काट-कपट कर दस-बीस हजार जमा कर लिया है। बस, उसी का घमंड है, और कोई बात नहीं। द्वेष में दूसरों को धनी समझने की विशेष चेष्टा होती है।

ज्ञानशंकर इन कुकल्पनाओं से भरे हुए बाहर आये तो चचा को दीवानखाने में