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प्रेमाश्रम

गये। राय साहब ने यदि गोली चलायी होती तो भी उन्हें इतनी चोट न लगती। संज्ञा-शून्य से हो गये। ऐसा जान पड़ता था मानो कोई आकर्षण शक्ति प्राणों को खीच रही है। अपनी नाव को भंवर में डूबते पा कर भी कोई इतना यभीत, इतना असावधान न होता होगा। रायसाहब की तीव्र दृष्टि ने सिद्ध कर दिया कि रहस्य खुल गया, सारे यत्न, सारी योजनाएँ निष्फल हो गयी! हा हतभाग! कहीं का न रहा। क्या जानता था कि यह महाशय ऐसे आत्मदर्शी है।

इतने में रायसाहब ने अपमानसूचक भाव से मुस्करा कर कहा, मैंने एक बार तुमसे कह दिया कि धन-सम्पत्ति तुम्हारे भाग्य में नहीं है, तुम जो चाले चलोगे वह सब उल्टी पढ़ेंगी। केवल लज्जा और ग्लानि हाथ रहेगी।

ज्ञानशंकर ने अज्ञान भाव से कहा, मैंने आपका आशय नहीं समझा।

रायसाहब-बिलकुल झूठ है। तुम मेरा आशय खुब समझ रहे हो। इससे ज्यादा कुछ कहूँगा तो उसका परिणाम अच्छी न होगा। मैं चाहूं तो सारी राम कहानी तुम्हारी जबान से कहा हूं, लेकिन इसकी जरूरत नहीं। तुम्हें बड़ा भ्रम हुआ। मैं तुम्हे बड़ा चतुर समझता था, लेकिन अब विदित हुआ कि तुम्हारी निगाह बहुत मोटी है। तुम्हारा इतने दिनो तक मुझसे सम्पर्क रहा, लेकिन अभी तक तुम मुझे पहचान न सके। तुम सिंह का शिकार बाँस की तीलियो से करना चाहते हो, इसलिए अगर उसके दबोच में आ जाओ तो वह तुम्हारा अपना दोष है। मुझे मनुष्य मत समझो, मैं सिंह हैं। अगर अभी अपने दाँत और पजे दिखा दें तो तुम काँप उठोगे। यद्यपि यह थाल बीस-पच्चीस आदमियों को सुलाने के लिए काफी है, शायद यह एक कौर खाने के बाद उन्हें दूसरे कौर की नौबत न आयेगी, लेकिन मैं पूरा थाल हजम कर सकता हूँ और तुम्हे मेरे माथे पर बल भी न दिखायी देगा। मैं शक्ति का उपासक हैं, ऐसी वस्तुएँ मेरे लिए दूध और पानी है।

यह कहते-कहते राय साहब ने थाल से कई कौर उठा कर जल्द-जल्द खायें। अकस्मात् ज्ञानशंकर तेजी से लपके, थाल उठा कर भूमि पर पटक दिया और रायसाहब के पैरो पर गिर कर बिलख बिलख रोने लगे। राय साहब की योगसिद्धि ने आज उन्हें परास्त कर दिया। उन्हें आज ज्ञात हुआ कि यह चूहे और सिंह की लड़ाई है।

राय साहब ने उन्हें उठा कर बिठा दिया और बोले-लाला, मैं इतना कोमल हृदय नही हूँ कि इन आंसुओं से पिघल जाऊँ। आज मुझे तुम्हारा यथार्थ रूप दिखायी दिया। तुम अधम स्वार्थ के पंजे में दबे हुए हो। यह तुम्हारा दोष नही, तुम्हारी धर्मविहीन शिक्षा का दोष है। तुम्हें आदि से ही भौतिक शिक्षा मिली। हृदय के भाव देबे गये। तुम्हारे गुरुजन स्वयं स्वार्थ के पुतले थे। उन्होंने कभी सरल सन्तोषमय जीवन का आदर्श तुम्हारे सामने नहीं रखा। तुम अपने घर में, स्कूल में, जगत् मै नित्य देखते थे कि बुद्धि-बल का कितना मान है। तुमने सदैव इनाम और पदक पाये, कक्षा में तुम्हारी प्रशंसा होती रहीं, प्रत्येक अवसर पर तुम्हे आदर्श बना कर दूसरों को दिखाया जाता था। तुम्हारे आत्मिक विकास की और किसी ने ध्यान नही दिया, तुम्हारे मनो