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प्रेमाश्रम


सहसा डाक्टर प्रियनाथ ने उच्च स्वर से कहा, अधमरा ही क्यों छोड़ दिया? एक लाठी और क्यों न जड़ दी कि काम तमाम हो जाता? मूर्खों। तुम्हारा अपराधी तो मैं था, इन्होने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?

यह कह कर वह प्रेमशंकर के पास घुटनों के बल बैठ गये और घाव को भलीभाँति देखा। कंधे की हड्डी टूट गयी थी। तुरन्त रुमाल निकाल कर कन्धे में पट्टी बाँधी। तब अस्पताल जा कर एक चारपाई लिवा लाये और प्रेमशंकर को उठाकर ले गये। हजारो आदमी अस्पताल के सामने चिन्ता मे डूबे खड़े थे। सबको यही भय हो रहा था कि कहीं चोट ज्यादा न आ गयी हो। लेकिन जब डाक्टर साहब ने मरहम पट्टी के बाद आ कर कहा, चोट तो बहुत ज्यादा आयी है, कन्धे की हड्डी टूट गयी है, लेकिन आशा है कि बहुत जल्द अच्छे हो जायेंगे तब लोगों के चित्त शान्त हुए। एक-एक करके सभी वहाँ से चले गये।

लाली प्रमाशंकर को ज्यों ही यह शोक सम्वाद मिला वह बदहवास दौड़े हुए आये और प्रेमशंकर के पास बैठ कर देर तक रोते रहे। प्रेमशंकर सचेत हो गये थे। हाँ विषम-पीड़ा से विकल थे। डाक्टर ने बोलने या हिलने को मना कर दिया था, इसलिए चुपचाप पड़े हुए थे। लेकिन जब प्रभाशंकर को बहुत अधौर देखा तो धीरे से बोले, आप घबराये नही, मैं जल्द अच्छा हो जाऊँगा। कंधों में दर्द हो रहा है। इसके सिवा मुझे और कोई कष्ट नही हैं। ये बातें सुन कर प्रभाशंकर को तस्कीन हुई। चलते समय उन्होंने डाक्टर साहब के पास जा कर बड़े विनीत भाव से कहा-बाबू जी, यह लड़का मेरे कुल का दीपक हैं। आप इस पर कृपा-वृष्टि रखिएगा। इसके प्राण बच गये तो यथाशक्ति आपकी सेवा करने में कोई बात उठा न रखेगा। यद्यपि मैं किसी लायक नहीं हैं तथापि अपने से जो कुछ हो सकेगा वह अवश्य आपको भेंट करूंगा।

प्रियनाथ ने कहा लाला जी, आप यह क्या कहते हैं। अगर मैं इनकी सेवासुश्रूषा में तन-मन से न लगे तो मुझसे ज्यादा कुतन प्राणी संसार में न होगा। मेरे ही कारण इन्हे यह चोट आयी है। अगर यह वही न होते तो मेरी हड्डियों को भी पता न मिलता। इन्होंने जान पर खेल कर मेरी प्राण-रक्षा की। इनका एहसान कभी मेरे सिर से नहीं उतर सकता।

तीन-चार दिन में प्रेमशंकर इतने स्वस्थ हो गये कि तकिये के सहारे बैठ सके। लकड़ी ले कर औषधालय के बरामदे में टहलने भी लगे। उनका कुशल समाचार पूछने के लिए शहर में सैकड़ो आदमी प्रतिदिन आते रहते थे। प्रेमशंकर सबसे डाक्टर साहब की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते। प्रियनाथ के सेवा-भाव ने उन्हें मोहित कर दिया था। वह दिन में कई बार उन्हें देखने आते। कभी-कभी समाचार-पत्र पढ़ कर सुनाते, उनके लिए अपने घर में विशेष रीति से भोजन बनवाते। प्रेमशंकर मन में बहुत लज्जित थे कि ऐसे सज्जन, ऐसे देवतुल्य पुरुष के विषय में मैंने क्यो अनुचित सन्देह किये। वह अपनी विमल श्रद्धा से उच्च अभक्ति की पूर्ति कर रहे थे।

एक सप्ताह बीत चुका था । प्रेमशंकर उदास बैठे हुए सोच रहे थे कि उन दीन