पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/२७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८४
प्रेमाश्रम

अभियुक्तों का अब क्या हाल होगा? मैं यहाँ पड़ा हूँ। अपीलों को अभी तक कुछ निश्चय न हो सका और अपील होगी कैसे? इतने रुपये कहां आयेंगे? आजकल तो न्याय गरीबों के लिए एक अलभ्य वस्तु हो गया है। पग-पग पर रुपये का खर्च। और यह क्या मालूम कि अपील की नतीजा हमारे अनुकूल होगा। कही ये ही सजाएँ बहाल रह गयी तो अपील करना निष्फल हो जायेगा। लेकिन कुछ भी हो अपील करनी चाहिए। रुपये का कोई न कोई उपाय निकल ही आयेगी। और कुछ न होगा तो दुकान-दुकान और घर-घर घूम झर चन्दा माँगूंगा। दीनों से स्वभावतः लोगों की सहानुभूति होती है। सम्भव है काफी धन हाथ आ जाय। ज्ञानशंकर को बुरी लगेगी लगे, इसमे मेरा कुछ बस नहीं। क्या उन्हें इस दुर्घटना की खबर न मिली होगी? आना तो दूर रहा, एक पत्र भी न लिखा कि मुझे तस्कीन होती।

वह इन विचारों में मग्न थे कि प्रियनाथ आ गये और बोले, आप इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। थोड़ी सी चाय पी लीजिए, चित्त प्रसन्न हो जाय।

प्रेमशंकर-जी नहीं, बिलकुल इच्छा नहीं है। आप मुझे यहाँ से कब तक बिदा करेंगे?

प्रियनाथ-अभी शायद आपको यहाँ एक सप्ताह और नजरबन्द रहना पड़ेगा, अभी हड्डी के जुड़ने में थोड़ी सी कसर है, और फिर ऐसी जल्दी क्या है? यह भी तो आपका ही घर है।

प्रेमशंकर—आप मेरे सिर पर उपकारों का इतना बोझ रखते जाते हैं कि मैं शायद हिल भी न सकूँ। यह आपकी कृपा, स्नेह और शालीनता का फल है कि मुझे पीड़ा कष्ट कभी जान ही न पड़ा। मुझे याद नहीं आता कि इतनी शांति कही और मिली हो। आपकी हार्दिक समवेदना ने मुझे दिखा दिया कि संसार में भी देवताओं का वास हो सकता है। सभ्य जगत पर से मेरा विश्वास उठ गया था। आपने उसे फिर जीवित कर दिया।

प्रेमशंकर की नन्नता और सरलता डाक्टर महोदय के हृदय को दिनों-दिन मोहित करती जाती थीं। ऐसे शुद्धात्मा, साधु और निस्पृह पुरुष को श्रद्धा-पात्र बन कर उनकी क्षुदताएँ और मलिनताएँ आप ही आप मिटती जाती थी। वह ज्योति दीपक की भांति उनके अन्त करण के अन्धेरे को विच्छिन्न किये देती थी। इस श्रद्धा-रत्न को फ कर वह ऐसे मुग्ध थे जैसे कोई दरिद्र पुरुष अनायास कोई सम्पत्ति पा जाय। उन्हें सदैव यही चिन्ता रहती थी कि कहीं यह रत्न मेरे हाथ से निकल न जाय। उन्हें कई दिनों से यह इच्छा हो रही थी कि लखनपुर के मुकदमें के विषय में प्रेमशंकर से अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से प्रकट कर दे, पर इसका कोई अवसर न पाते थे। इस समय अवसर पा कर बोले, आप मुझे बहुत लज्जित कर रहे हैं। किसी दूसरे सज्जन के मुँह से ये बाते सुनकर मैं अवश्य समझता कि वह मुझे बना रहा है। आप मुझे उससे कहीं ज्यादा विवेक-परायण और सच्चरित्र समझ रहे हैं जितना मैं हूँ। साधारण मनुष्यों की भाँति लोभ से ग्रसित, इच्छाओं का दास और इन्द्रियों का भक्त हूँ। मैंने अपने जीवन