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प्रेमाश्रम

मुंशी ईजादहुसेन से बाते करते पाया। यह मुंशी ज्वालासिंह के इजलास के अहलमद थे-बड़े बातूनी, बड़े चलते-पुर्जे। वह कह रहे थे, आप घबरायें नहीं, खुदा ने चाहा तो बाबू दयाशंकर बेदाग बरी हो जायेंगे। मैंने महरी की मारफत उनकी बीबी को ऐसा चग पर चढ़ाया है कि वह दारोगा जी को बिना बरी कराये डिप्टी साहब का दामन न छोड़ेगी। सौ-दो सौ रुपए खर्च हो जायेगे, मगर क्या मुजायका, आबरू तो बच जायगी। अकस्मात् ज्ञानशंकर को वहाँ देख कर वह कुछ झेप गये।

प्रभाशंकर बोले, रुपये जितने दरकार हो ले जायें, आपकी कोशिश से बात बन गयी तो हमेशा आपका शुक्रगुजार रहूँगा।

ईजादहुसेन ने ज्ञानशंकर को देखते हुए कहा, बाबू ज्वालासिंह दोस्ती का कुछ हक तो जरूर ही अदा करेंगे। जबान से चाहे कितने ही बेनियाज बने, लेकिन दिल में वह आपका बहुत लेहाज करते है। मैं भी इस पर खूब रंग चढ़ाता रहता हूँ। कल आपका जिक्र करते हुए मैंने कहा, वह तो दो-तीन दिन से दाना-पानी तक किये हुए है। यह सुन कर कुछ गौर करने लगे, बाद अजां उठ कर अंदर चले गये।

प्रभाशंकर ने मुंशी को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा, पर ज्ञानशंकर ने तुच्छ दृष्टि से देखा और ऊपर चले गये। विद्यावती उनकी राह देख रही थी, बोली, आज देर क्यों कर रहे हो' भोजन तो कभी से तैयार है।

ज्ञानशंकर ने उदासीनता से कहा, क्या खाऊँ, कुछ मिले भी? मालिक और मालकिन दोनों ने आज से मेरा निबटारा कर दिया। उन्हें मेरी सूरत देखने से पाप लगता है। ऐसो के साथ रहने से तो मर जाना अच्छा है।

विद्यावती ने सशक होकर पूछा, क्या बात हुई?

ज्ञानशंकर ने इस प्रश्न का उत्तर विस्तार के साथ दिया। उन्हें आशा थी कि इन बातों से विद्या की शांति-प्रियता को आघात पहुंचेगा, किन्तु उन्हें कितनी निराशा हुई जब उसने सारी कथा सुनने के बाद कहा, तुम्हे ज्वालासिंह के यहाँ चले जाना चाहिए था। चाचा जी की बात रह जाती। ऐसे ही अवसरों पर तो अपने-पराये की पहचान होती है। तुम्हारी ओर से आना-कानी देख कर उन लोगों को क्रोध आ गया होगा। क्रोध मे आदमी अपने मन की बात नहीं कहता। वह केवल दूसरे का दिल दुखाना चाहता है।

ज्ञानशंकर खिन्न हो कर बोले, तुम्हारी बातें सुन कर जी चाहता है कि अपना और तुम्हारा दोनों का सिर फोड़ लूँ। उन लोगों के कटु वाक्यों को फूल-पान समझ लिया, मुझी को उपदेश देने लगी। मुझे तो यह लज्जा आ रही है कि इस गुरगे ईजादहुसेन ने मेरी तरफ से न जाने क्या क्या रद्दे जमाये होंगे और तुम मुझे सिफारिश करने की शिक्षा देती हो। मैं ज्वालासिंह को जता देना चाहता हूँ कि इस विषय में सर्वथा स्वतत्र हूँ। गरजमद बन कर उनकी दृष्टि में नीचा बनना नहीं चाहता।

विद्या ने विस्मित होकर पूछा, क्या उनसे यह कहने जाओगे?

ज्ञानशंकर अवश्य जाऊँगा। दूसरे की आबरू के लिए अपनी प्रतिष्ठा क्यों खोऊं?