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प्रेमाश्रम


रईसो को भी थी जो वहम की दवा किया करते हैं। कभी कोई स्वादिष्ट अवलेह बनवा लिया, कनी कौई सुगन्धित अर्क खिंचवा लिया और रुचि के अनुसार उसका सेवन करते रहे। किन्तु आज उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं एक जीर्ण रोग से ग्रसित हूँ, अब अर्क और अवलेह से काम न चलेगा। इस रोग का निवारण तेज नश्तरो और तीक्ष्णय औषधियों से होगा। मैं सत्य का सेवक बनता था। वास्तव में अपनी इच्छाओं का दास हूँ। प्रेमशंकर ने मुझे नाहक बचा लियो। जरा दो-चार चाोटे पड़ जाती तो मेरी आँखें और खुल जाती।

मुआजल्लाह! मैं कितना स्वार्थी हूँ? अपने स्वार्थ के सामने दूसरों की जान की भी परवाह नहीं करता। मैंने इस मुआमले में आदि से अन्त तक कपट-व्यवहार से काम लिया। कभी मिसलों को गोर मे नही पड़ा, कभी जिरह के प्रश्नो पर विचार नहीं किया, यहां तक कि गवाहों के बयान भी आद्योपान्न न सुने, कभी दूसरे मुकदमे मे चला जाता था, कभी मित्रों से बातें करने लगता था। मैंने थोड़ा सा अध्ययन किया होता तो प्रियनाथ को चुटकियों पर उडा देता। मुखबिर को दो-चार जिरहो मे उखाड सकता था। थानेदार का बयान भी कुछ ऐसा प्रामाणिक न था, लेकिन मैंने तो अपने कर्तव्य पर कभी विचार ही नहीं किया। अदालत में इस तरह जा बैठता था जैसे कोई मित्रों की सभा में जा बैठता हो। मैं इस पेशे को बुरा कहता हूँ, यह मेरी मक्कारी हैं। हमारी अनीति है जिसने इस पेशे को बदनाम कर रखा है। उचित तो यह है कि हमारी दृष्टि सत्य पर हो, पर इसके बदले हमारी निगाह सदैव रुपये पर रहती है। खुदा ने चाहा नो आइन्दा में अब वही करूंगा जो मुझे करना चाहिए। हाँ, अब से ऐसा ही होगा। अब में भी प्रेमशंकर के जीवन को अपना आदर्श बनाऊँगा, संतोष और सेवा के सन्मार्ग पर चलूंगा।

जब तक प्रेमशंकर औषधालय में रहे, इफनियली प्राय. नित्य उनका समाचार पूछने जाया करते थे। उनके धैर्य और साहस पर डाक्टर साहब को आश्चर्य होता था। प्रेमशंकर के प्रति उनकी श्रद्धा दिनों-दिन बढ़ती जाती थी। अपने मुवक्किलों के साथ उनका व्यवहार अब अविक विनयपूर्ण होता था। वह उनके मुआमले ध्यान से देखते, एक समय एक से अधिक मुकदमा न लेने और एक मुकदमे को इजलास पर छोड़ कर दुसरे मुकदमे की पैरवी करने की तो उन्होंने मानो सपथ हीं खा ली। वह अपील करने के लिए बार-बार प्रेमशंकर को प्रेरित करना चाहते थे, पर अपनी असज्जनता को याद करके संकुच जाते थे। अन्त में उन्होंने सीतापुर जा कर बाबू ज्वालासिंह से उन विषय में परामर्श करने का निश्चय किया; किन्तु वह महाशय अभी तक दुविधा में पड़े हुये थे। प्रेमशकर को लिख चुके थे कि त्याग-पत्र दे कर शीघ्र ही आप की सेवा में आना हैं। लकिन फिर कोई न कोई ऐसी बात आ जाती थी कि उन्हें अपने इरादे को स्थगित करने पर विवश होना पड़ता था। यह बात थी कि शीलमणि उनके इस्तीफा देने पर राजी न होती थी। वह कहनी—कला से तुम्हारे अफसर तुमसे अप्रसन्न है, तरक्की नही होती हैं, न सही। तुम्हारे हाथों में न्याय करने का अधिकार तो है।