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प्रेमाश्रम

अगर तुम्हारे विघातागण तुम्हारे व्यवहार से असन्तुष्ट हो कर तुम्हे पदच्युत कर.दे, तो तुम्हे अपील करनी चाहिए और चोट के हाकिमों से लड़ना चाहिए। यह नही कि अफसरों ने जरा तोवर बदला और तुमनें भयभीत हो कर त्याग-पत्र देने की ठान ली। तुम्हारी इस अकर्मण्यता से तुम्हारे कितने ही न्यायशील और आत्माभिमानी सहर्वागियों की हिम्मत टूट जायेगी और वह भाग निकलने का उपाय करने लगेगे। यह विभाग सज्जनो से खाली हो जायगा और वही खुशामदी टट्ट, हाकिम के इशारे पर नाचनेवाले बाकी रह जायेंगे। ज्वालासिंह इस दलील का कोई जवाब न दें सकते थे। जब डाक्टर इर्फानअली सिर पर जा पहुँचे तो वह अपनी शिथिलता और अधिका-प्रेम का दोप शीलमणि पर रख कर अपने को मुक्त न कर सके।

शीलमणि समझ गयी कि अब इन्हें रोकना कठिन है, मेरी एक न सुनेगें। ज्यों ही अवसर मिला उसने ज्वालासिंह से पूछ डाक्टर साहब को क्या जवाब दिया?

ज्वालासिंह जवाब क्या देना है, इस्तीफा दिये देता हैं। अब हीला-हवाला करने से काम न चलेगा। जब तक मैं न जाऊँगा, बाबू प्रेमशंकर कुछ न कर सकेंगे। दुर्भाग्य से वह मुझपर उससे कहीं ज्यादा विश्वास करते हैं, जिसके योग्य मैं हूँ। अपील की अवधि बीत जायगी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी। अपील के सफल होने की बहुत कुछ आशा है और यदि मैरे सदुद्योग से कई निरपराधों की जान बच जायें, तो मुझे अब एक क्षण भी विलम्ब न करना चाहिए।

शीलमणि----तो अधिक दिनों की छुट्टी क्यों नही ले लेते?

ज्वालासिंह-तुम तो जान बूझ कर अनजान वनती हो। वहाँ मुझे कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ेगी जो दासत्व की बेड़ियाँ पहने हुए नहीं कर सकता। रुपये के लिए चन्दे माँगना, वकीलों से मिलना-जुलना, लखनपुरवालों के कष्ट-निवारण की आयोजना करना, यह सभी काम करने पड़ेंगे। पुलिसवालों की निगाह पर चढ़ जाऊँगा, अधिकारी वर्ग तन जायेगे, तो इस बेड़ी को काट ही क्यों न दें? मुझे पूरा विश्वास है कि मैं स्वाधीन हो कर जितनी जाति-सेवा कर सकता हूँ, उतनी इस दशा मे कभी न कर सकेंगी।

शीलमणि बहुत देर तक उनसे तर्क-वितर्क करती रहीं, अन्त में क्रुद्ध हो कर बोली उँह, जो इच्छा हो करो! मुझे क्या करना है? जैसा सूखा सावन वैसा भरा भादौ। आप ही पछताओगें। यह सब आदर-सम्मान तभी तक है, जब तक हाकिम हो। जब जाति सेवकों में जा मिलोगे तो कोई बात भी न पूछेगा! क्या वहाँ सब के सब सज्जन ही भरे हुए है? अच्छे-बुरे सभी जगह होते हैं। प्रेमशंकर की तो मैं नहीं कहती, वह देवता है, लेकिन जाति-सेवकों में तुम्हे सैकड़ो आदमी ऐसे मिलेंगे जो स्वार्थ के पुतले हैं और सेवा भेष बना कर गुलछरें उड़ाते है। वह निस्पृह, पवित्र आत्माओं को फूटी आँख नहीं देख सकते। तुम्हें उनके बीच में रहना दुर्भर हो जायेगा। उनका अन्याय, कपट-व्यवहार और सकीर्णता देख कर तुम कुढोगे, पर उनसे कुछ कह न सकोगे। इसलिए जो कुछ करो, सोच-समझ कर करो।