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प्रेमाश्रम


बिसेसर ने आँसू पोंछते हुए कहा, हाँ सरकार, मैं बिसेसर ही हूँ।

प्रेमशंकर ने अपने नौकरों से कठोर स्वर में कही, तुम लोग निरे गंवार और मूर्ख हो। न जाने तुम्हें कभी समझ आयेगी भी या नहीं।

मस्ता--भैया, हम तो बार-बार पूछते रहे कि तुम कौन हो? वह कुछ बोले ही नहीं, तो मैं क्या करता?

प्रेम-बस, चुप रह गंवार कहीं का!

नौकरों ने देखा कि हमसे भूल हो गयी तो चुपके से एक एक करके सरक गये। प्रेमशंकर को क्रोध में देख कर सब के सब थर-थर काँपने लगते थे। यद्यपि प्रेमशंकर उन सवसे भाई चारे का बर्ताव करते थे, पर वह सब उनका बड़ा अदब करते थे। उनके सामने चिलम तक न पीते। उनके चले जाने के बाद प्रेमशंकर ने बिसेसर साह को खाट पर बैठाया और अत्यन्त लज्जित हो कर वोले, साह जी, मुझे बड़ा दुःख है कि मेरे आदमियों ने आपके साथ अनुचित व्यवहार किया। सब के सब उजड्ड और मूर्ख हैं।

बिसेसर ने ठंडी साँस ले कर कहा, नहीं भैया, इन्होंने कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं इसी लायक हूँ। आप मुझे खम्भे में बाँध कर कोड़े लगवाये तव भी बुरा न मानूंगा। मैं विश्वासघाती हूँ। मुझे जो सजा मिले वह थोड़ी है। मैंने अपनी जान के डर से सारे गाँव को मटिया मेट कर दिया। न जाने मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी थी। पुलिस वालों की भभकी में आ गया। वह सब ऐसी-ऐसी बातें करते हैं, इतना डराते और धमकाते हैं कि सीधा-सादा आदमी बिलकुल उनकी मुट्ठी में आ जाता हूँ। उन्हें जरूर मे जरूर किसी देवता का इष्ट है कि जो कुछ वह कहलाते हैं, वहीं मुंह से निकलता है। भगवान जानते हैं जो गौस खाँ के बारे में मुझे किसी से कुछ बात हुई हो। मुझे तो उनके कतल को हाल दिन चढ़े मालूम हुआ, जब मैं पूजा-पाठ करके दूकान पर आया। पर जब दरोगा जी थाने में ले जा कर मेरी साँसत करने लगे तब मुझपर जैसे कोई जादू हो गया। उनकी एक-एक बात दुहराने लगा। जब मैं अदालत में बयान दे रहा था तब सरम के मारे मेरी आँखें ऊपर न उठती थीं। मेरे जैसा कुकर्मी संसार में न होगा। जिन आदमियों के साथ रात-दिन का रहन-सहना उठना-बैठना था, जो मेरे दुःख दर्द में शरीक होते थे, उन्हीं के गर्दन पर मैंने छुरी चलायी। जब कादिर ने मेरा वयान सुन कर कहा, 'बिसेसर, भगवान से डरो उस घड़ी मेरा ऐसा जी चाहता था, कि धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ। मन होता था कि साफ-साफ कह दें ‘यह सब सिखायी-पढ़ाई बाते हैं पर दारोगा जी की ओर ज्यों ही आँख उठती थी मेरी हियाव छूट जाता था। जिस दिन से मनोहर ने अपने गले में फाँसी लगायी है उस दिन से मेरी नींद हराम हो गयी। रात को सोते-सोते चौंक पड़ता हैं, जैसे मनोहर सिरहाने खड़ा हो। साँझ होते ही घर के कैवाड़ बन्द कर देता हूँ। बाहर निकलता हैं तो जान पड़ता है, मनोहर सामने आ रहा है। घरवाली उसी दिन से बीमार पड़ी हुई है। घर की तो यह दुर्दशा है, उधर गाँव में अँधेर मचा हुआ है। सबके बाल-बच्चे भूखों मर रहे हैं। फैजू और कर्तार नित नये तूफान रचते रहते हैं। भगवान् सुक्खू चौधरी का