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प्रेमाश्रम

विचार मे वह मनुष्य कहलाने के योग्य भी न था। लेकिन उसकी इस ग्लानि-सूचक बातो ने उसे पिशाच श्रेणी से उठा कर देवासन पर बैठा दिया। भगवान्! जिसे मैं इतना दुरात्मा समझता था, उसके हृदय में आत्मग्लानि का यह पवित्र भाव! यह आत्मोत्कर्ष, यह ईश्वर-भिस्ता, यह सदुद्गार! मैं कितने भ्रम में पडा हुआ था? दुनिया के लोग अनायास ही बदनाम करते हैं, पर मैंने तो हर एक बुरे को अच्छा ही पाया। इसे अपने सौभाग्य के सिवा और क्या कहूँ? ईश्वर मुझे इस अविश्वास के लिए क्षमा करना। यह सोचकर उनकी आँखों में आंसू भर आय। बोले—शाह जी, तुम्हारी बाते सुन कर मुझे वही आनन्द हुआ जो किसी सच्चे साधु के उपदेश से होता। मैं बहुत जल्द अपील करनेवाला हूँ! अड़चन यही है कि गवाहो के बयान कैनै बदले जायें? सम्भव है हाईकोर्ट मुकदमे पर नजरसानी करने की आज्ञा दे दे और फिर इसी अदालत में मामला पैदा हो, लेकिन बयान बदलने से तुम और डाक्टर प्रियनाथ दोनों ही फंस जाओगे। प्रियनाथ ने तो अपने बचाव की युक्ति सोच लीं, लेकिन तुम्हारा बचाव कठिन है। इसे अच्छी तरह सोच लो।

बिसेसर—खूब सोच लिया है।

प्रेमशंकर—ईश्वर ने चाहा तो तुम भी बच जाओगे। मैं कल वकीलो से इन विषय में सलाह लूँगा।

यह कह कर वह बिसेसर के खाने-पीने का प्रबन्ध करने चले गये।



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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु उदास और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलने-जुलते। उनकी दशा इम समय उस पक्षी की सी थी जिनके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की सी जो किसी दैवी प्रकोप से पति-पुत्र-विहीन हो गयी हो। उनके जीवन की सारी आकाक्षाएँ मिट्टी में मिलती हुई जान पडती थी। अभी एक सप्ताह पहले उनकी आसा-लता सुखद समीरण से लहरा रही थी। उस स्थान पर अब केवल झुलसी हुई पतियों का ढेर था। उन्हें पूरा विश्वास था कि राय साहब ने सारा वृत्तान्त गायत्री को लिख दिया होगा। पूरी के लिए लपके थै, आधी भी हाथ में गयी। उन्हें सबसे विषम वेदना यह थी कि मेरे मनोभावो की कलई खुल गयी। अगर धैर्य का कोई आबार था तो यही दार्शनिक विचार था कि इन अवसरबाजों में मेरे लिए अपने लक्ष्य पर पहुँचने का और कोई मार्ग न था। उन्हें अपने कृत्यो पर लेशमात्र भी ग्लानि या लज्जा न थीं। बस, यहीं खेद था कि मेरे सारे षड्यन्त्र निष्फल हो गये।

लखनऊ से उन्होंने गायत्री को कई पत्र लिखे थे, पर बनारस से उसे पत्र लिखने की हिम्मत न पड़ती थी। उसके पास से आयी हुई चिट्ठियों को भी वह बहुत डरते-डरते खोलते थे। समाचार पत्रों को खोलते हुए उनके हाथ कांपने लगते थे। विद्या के पत्र रोज आते थे। उन्हें पढना ज्ञानशंकर के लिए अपनी भाग्य रेखा पढ़ने से कम