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प्रेमाश्रम

कर भी आपके निकट हूँ, ससार की कोई शक्ति मुझे आपसे अलग नही कर सकती। आध्यात्मिक बन्धन को कौन तोड सकता है। यह कृष्ण का प्रेमी निरन्तर राधा की गोद मे सलग्न रहेगा। आपसे केवल यही भिक्षा माँगती हूँ कि मेरी ओर से मनमुटाव न करें और अपने उदार हृदय के एक कोने में मेरी स्मृति बनाये रखें।'

ज्ञानशंकर के जाने के बाद गायत्री को एक-एक क्षण काटना दुस्तर हो गया था। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं कितने गहरे पानी में आ गयी हूँ। जब तक ज्ञानशंकर के हाथों का सहारा था उस गहराई का अन्दाज न होता था। उस सहारे के टूटते ही उसके पैर फिसलने लगे। वह सँभलना चाहती थी, पर तरग का वेग सँभलने न देता था। अबकी ज्ञानशंकर पूरे साल भर के बाद गोरखपुर से निकले थे। वह नित्य उन्हें देखती थी, नित्य उनसे बातें करती थी और यद्यपि यह अवसर दिन में एक या दो भार से अधिक न मिलता था, पर उन्हें अपने समीप देख कर उसका हृदय सन्तुष्ट हता था। अब पिजरे को खाली देख कर उसे पक्षी की बार-बार याद आती थी। वह मरल और गौरवशील थी, लेकिन उसके हृदय-स्थल में प्रेम का एक उबलता हुआ सोती छिपा हुआ था। वह अब तक अभिमान के मोटे कत्तल से दबा हुआ प्रवाह को कोई मार्ग न पा कर एक सुपुप्तावस्था में पड़ा हुआ था। यही मुपुप्ति उमका सतीत्व थी। पर भक्ति और अनुराग ने उस अभिमान के कत्तल को हटा दिया था और उबलता हुआ सोता प्रवल बेग से द्रवित हो रहा था। वह आत्मविस्मृति की दशा में मग्न हो गयी थी। वह अचेत सी हो गयी थी। उसे लेश मात्र भी अनुमान न होता था कि वह भक्ति मुझे वासना की ओर खीचे लिये जाती है। वह इस प्रेम के नशे में कितनी ही ऐसी बाते करती थी और कितनी ही ऐसी बाते सुनती थी जिन्हें सुन कर वह पहले कानो पर हाथ रख लेती, जो पहले मन में आती तो बह आत्मघात कर लेती, परन्तु अब वह गोपिका थी, वह सदनुराग की साक्षात् प्रतिमा थी। इस आध्यात्मिक उद्गार में बासना का लगाव कहाँ? ऐन्द्रिक तृष्णाओं का मिश्रण कहाँ? कृष्ण का नाम, कृष्ण की भक्ति, कृष्ण की रट ने उसके हृदय और आत्मा को पवित्र प्रेम से परिपूरित कर दिया था। गायत्री जब ज्ञानशंकर की ओर चल चितवनों से ताकत या उनके सतृष्ण लोचनों को अपनी मृदुल मुसक्यान सुधा से प्लावित करती तो वह अपने को गोपिका समझती जो कृष्ण से ठिठोली या रहस्य कर रही हो। उसकी इस चितवन और इस मुसक्यान में सच्चा प्रेमानुराग झलकता था। ज्ञानशकर अब उसे प्रेमोन्मत्त नेत्रों से देखते या उसकी निठुरता और अकृपा का गिला करते तो उसे इसमें भी उन्हीं पवित्र भावों की झलक दिखायी देती थी। इस प्रेम रहस्य और आमोद-विनोद का चस्का दिनों-दिन बढ़ता जाता था। उन प्रेम कल्पना के बिना चित्त उचटा रहता था। गायत्री इसी विकलता की दशा में कभी ज्ञानशंकर के दीवानखाने की ओर जाती, कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी बाग मे, पर कही जी न लगता। वह गोपिकाओं की विरह-व्यथा की अपने वियोग-दुख से तुलना करती। सूरदारू के उन पदो को गाती जिनमें गोपिकाओं का विरह वर्णन किया गया। उसके बाग में एक कदम का पेड़