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प्रेमाश्रम

इस तिरस्कार से राय साहब कुछ धीमे पड़ गये। लज्जित हो कर बोले, हाँ, सम्भव है, इसलिए कि अब मैं बूढा हुआ। कुछ का कुछ देखता हैं, कुछ को कुछ सुनता हूँ। अधिक लोभी, अधिक शक्की हो गया हूँ। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारी आँखो मैं तुम्हारे पति को उससे ज्यादा गिराऊँ जितना कि उसकी प्राण-रक्षा के लिए आवश्यक हैं, पर तुम्हारी मिथ्या पति-भक्ति मुझे मजबूर कर रही है कि उसके कुकृत्यों को सविस्तार बयान कहीं। तुमने मुझे पहले भी देखा था, क्या मेरी यह दशा थी? मैं ऐसा ही दुर्बल, रुग्ण और जर्जर था? क्या इसी तरह मुझे एक पग चलना भी कठिन था? मैं इसी तरह रुधिर थूकता था? यह सब उसी का किया हुआ है। उसने मुझे भोजन के साथ इतना विष खिला दिया कि यदि उसे वीस आदमी खाते तो एक की भी जान न बचती। यह केवल भ्रम नहीं है। मैं उसका संदेह प्रमाण बना बैठा हूँ। उसने स्वयं इस पापाचार को स्वीकार किया। पहला ग्रास खाते हो मुझपर सारा रहस्य खुल गया। पर मैंने केवल यह दिखलाने के लिए कि मुझे मारना इतना सुलभ नहीं है जितना उसने समझा था, पूरी थाली साफ कर दी। मुझे विश्वास था कि मैं योग क्रियाओं द्वारा विप को शरीर से निकाल डालूंगा, पर क्षण मात्र में विष रोम-रोम में घुस गया, मैं उसे निकाल न सका। मैंने अपनी स्वास्थ्य-रक्षा और दीर्घ जीवन के लिए वह सब कुछ किया जो मनुष्य कर सकता है और जिसका फल यह था कि मैं बहत्तर साल का बुड्ढा हो कर एक पच्चीस वर्ष के युवक से अधिक बलवान और साहसी था। मैं अपने जीवन को चरम सीमा तक ले जाना चाहता था। इसके लिये मैंने कितना सयंम किया, कितनी योग क्रियाएँ की, साधु-सन्तों की कितनी सेवा की, जडी-बूटियों की खोज मे कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा, तिब्बत और काश्मीर की खाक छानता फिरा, पर इस नराधम ने मेरी सारी आयोजनाओं पर पानी फेर दिया। मैंने अपनी सारी सम्पत्ति कार्य-सिद्धि पर अर्पण कर दी थी। योग और तन्त्र का अभ्यास इसी हेतु से किया था कि अक्षय यौवन तेज का आनन्द उठाता हूँ। विलास-भोग ही मेरे जीवन को एक मात्र उद्देश्य था। चिन्ता को मैं सदैव काला नाग समझता रहा। मेरे नौकर-चाकर प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार करते, पर मैंने उनकी फरियाद को कभी अपने सुख-भोग मैं बाधक नहीं होने दिया। अगर कभी अपने इलाके में जाता भी था तो प्रजा का कष्ट निवारण करने के लिए नहीं बल्कि केवल सैर और शिकार के लिए, किन्तु इस निर्दयी पिशाच की बदौलत सारे गुनाहू बेलज्जत हो गये। अब मैं केवल एक अस्थिपंजर हैं—प्राण-शून्य शक्तिहीन।

यह कहते-कहते राय साहब विषम पीड़ा से कराह उठे। जोर से खाँसी आयी और खून के लोथड़े मुंह से निकल आये। कई मिनट तक वह मूछवस्या में पड़े रहे। सहसा लपक कर उठे और बोले तुम प्रात काल बनारस चली जाओ और हो सके तो अपने पति को अग्निकुड में गिरने से बचाओ। तुम्हारी पति-भक्ति ने मुझे शात कर दिया। मैं उसे प्राण-दान देता हूँ। लेकिन सरल-हृदय गायत्री की रक्षा का भार तुम्हारे ही ऊपर है। अगर उसके सतीत्व पर जरा भी धब्बा लगे तो तुम्हारे कुल का सर्वनाश