पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०३
प्रेमाश्रम

हो जायगा। यही मेरी अंतिम चेतावनी है। इस पाप का निवारण गायत्री की सतीत्व रक्षा से ही होगा। तुम्हारे कल्याण की और कोई युक्ति नहीं है।

यह कह कर राय साहब धीरे से उठे और चले गये। तब विद्या ग्लानि, लज्जा और नैराश्य से मर्माहत हो कर पलंग पर लेट गयी और बिलख-बिलख कर रोने लगी। रायसाहब के पहले आक्षेप का उसने प्रतिबाद किया था, पर इसे दूसरे अपराध के विपय मे वह अविश्वास का सहारा न ले सकी। अपने पति की स्वार्थ नीति से वह खूब परिचित थी, पर उनकी वक्रता इतनी घोर और घातक हो सकती है इसका उसे अनुमान भी न था। अब तक उनकी कुवृत्तियों का पर्दा ढंका हुआ था। जो कुछ दु ख और सन्ताप होता था वह उसी तक रहता था, पर यहाँ आ कर पर्दा खुल गया। वह अपने पिता की निगाह में गिर गयी, उसके मुंह में कालिख लग गयी। राय साहब का यह समझना स्वाभाविक था कि इस दुष्कर्म में विद्या का भी कुछ न कुछ भाग अवश्य होगा। कदाचित् यही समझ कर वह उसे यह वृत्तान्त कहने आये थे। वह सारा दोष पति के सिर मढ़ कर अपने को क्योंकर मुक्त कर सकती है इस उधेड़-बुन में विद्या का ध्यान जब पाप-परिणाम की ओर गया तो वह काँप उठी। भगवान्! मैं दुखिया हैं, अभागिनी हूँ, मुझपर दया करो, तुम्हारी शरण हैं। भाँति-भाँति की शकाएँ उसके चित्त को विचलित करने लगी। मायाशंकर की सूरत आँखो में फिरने लगीं। ऐसा जी चाल्ला था कि पैरो मे पर लग जायँ और बड़ कर उसके पास जा पहुँचें। रह-रह कर हृदय में एक हुक सी उठती थी और अनिष्ट कल्पना से चित्त विकल हो जाता था।

एक क्षण में इन ग्लानि और शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया। आग की बिखरी हुई चिनगारियाँ एक प्रचंड ज्वाला के रूप में ज्ञानशंकर की ओर लपकी। तुम इतने नीच, इतने क्रूर, इतने दुर्बल हो। तुमने कही का न रखा। तुम्हारे कारण मेरी यह दुर्दशा हो रही है और अभी न जाने क्या-क्या होगी। तुम धूर्त हो। न जाने पूर्व जन्म में ऐसा क्या पाप किया था कि तुम्हारे पल्ले पड़ी। उसने ज्ञानशकर को उसी दम एक पत्र लिखने का निश्चय किया और सोचने लगी, उसकी शैली क्या हो? इसी सोच में पड़े-पड़े उसे नींद आ गयी। वह बहुत देर तक पड़ी रही। जब सर्दी लगी तो चौकी, कमरे में सन्नाटा था, सारे घर में निस्तब्धता छायी थी। महरियाँ भी सो गयी थी। उसके व्यालू का थाल सामने मेज पर रखा हुआ था और एक पालतू बिल्ली उसके निकट उन चूहों की ताक में बैठी हुई थी जो भोज्य पदार्थों का रसास्वादन करने के लिए आलमारी के कोने से निकल कर आते थे और अज्ञात भय के कारण आधे रास्ते से लौट जाते थे। विद्या कई मिनट तक इस दृश्य में मग्न रही। निद्रा ने उसके चित्त को शांत कर दिया था। उसे चूहे पर दया आयी जो एक क्षण में बिल्ली के मुँह का ग्रास बन जायगा। इसके साथ ही उसकी कल्पना चूहे से ज्ञानशंकर की अवस्था की तुलना करने लगी। क्या उसकी दशी भी इसी चूहे की-सी नहीं है? उन पर क्रोध क्यों करूं? वह दया के योग्य है। वह इसी चूहे की भाँति स्वाद के वश हो कर काल के मुँह में दौड़े जा रहे है, और माया लोभ के हाथो में काठ की पुतली बने हुए नाच रहे है। मैं जा कर उन्हें